“रचना प्रांजलमय लगे”
“रचना प्रांजलमय लगे”
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‘कवि’, जब-जब लिखते है;
पूरा राष्ट्र , उससे सीखते हैं;
लेखन में , देशहित दिखता;
या , सामाजिक मुद्दा होता।
अब ना, किसी का लक्ष्य है;
ना सही लेखन का ठिकाना;
बस, लिखने का ही चाहिए;
बकवास , कोई भी बहाना;
उलूल-जुलूल , लिखते अब;
इसमें , सिर्फ पंक्तियां होती;
नहीं कुछ भी , छंद-युक्त है;
बस कहते रहते , सब यही;
मेरी कविता तो, छंदमुक्त है।
अरे , कुछ नही तुम पाओगे;
बस, थोड़ा बहुत इतराओगे;
खुद का ही, नाम घिनाओगे।
काव्य में,तुम भी रम जाओ;
श्रद्धा और ममता, दिखाओ;
राष्ट्र की अपनी भक्ति लाओ;
कवि की सच्ची उक्ति गाओ;
कविता भले ही,श्रृंगारिक हो;
या हास्य-व्यंग का ही मेल हो,
फिर या कोई भक्ति ही टपके,
चाहे इसमें, वीरता ही झलके;
सदा ही, पाठक व श्रोता की;
लेखन से तो भींगा दो पलकें।
हर शब्द, सदा एक सीख हो;
हर वाक्य ही , नई प्रतीक हो;
काव्य संग्रह, काव्यालय लगे;
हरेक “रचना प्रांजलमय लगे”।
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स्वरचित सह मौलिक
……✍️पंकज ‘कर्ण’
………….कटिहार।।
तिथि: २८/९/२०२१