‘रचना का अंत’
‘रचना का अंत’
एक रचना का आज, रचनाकार के हाथों ही अंत हो गया!
किये थे अमूल्य क्षण दान जिसको,
अर्पित किया था, हृदय का हर भाव उसको।
वर्णमाला को प्यार से सहलाया था जिसकी,
कैसे हाथों से अपने ही,आज ये प्रपंच हो गया?
एक रचना का आज ,रचनाकार के हाथों ही अंत हो गया!
क्या विधि का विधान था? पूरित थी नव यौवना, रूप में अनुपम गढ़ी थी।
कई बार देखा,वो कौन सी रेखा बिन पढ़ी थी?
जो अदृश्य थी कटारी काल रूपी,
गढ़ने वाला हाथ ही उसके लिए विष-दंत हो गया।
एक रचना का आज रचनाकार के हाथों ही अंत हो गया!
जानती हूँ वो मिटी तो दूसरी भी बनेगी।
पर नहीं कदापि रूप उस सा कोई धरेगी।
जैसे जल जाती देह जो,
फिर से उसी रूप में वो कहो, फिर कैसे दिखेगी?
पल भर में ही हाय! उसका क्यों विध्वंस हो गया?
एक रचना का आज, रचनकार के हाथों ही अंत हो गया!
ढूँढती मैं फिरी,ज्यों सिया को श्रीराम खोजते रहे,
हाथ मेरे हर पृष्ठ पर, काँपते थरथराते रहे।
पाया नहीं जब कहीं तब ,मन में महा रंज हो गया।
एक रचना का आज, रचनाकार के हाथों ही अंत हो गया!
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