” बंधन “
बंधन है ये ऐसा
पवित्र है गंगा के जल सा ,
शिशुपाल के अंत को
चलाया सुदर्शन वध को ,
तब ऊँँगली कटी केशव की
लाल हुई धरा हस्तिनापुर की ,
दौड़ी द्रौपदी फाड़ा चीर
बाँध केशव को रोकी पीर ,
आशीर्वाद दिया तब केशव ने
अदा करुँगा कीमत इस जीवन में ,
फिर भरी सभा में पकड़ केश
अपनों ने धरा राक्षसों का वेश ,
खींचें पांचाली के वस्त्र
नही उठाया किसी ने शस्त्र ,
अपने ही परिवार ने दिया साथ
नही रोका निर्लज्ज का हाथ ,
फिर कृष्णा* की गुहार पर
चीर बढ़ाई कृष्ण ने वहाँ पर ,
लाज बचाया वचन निभाया
दयानिधि ने अपना रूप दिखाया ,
ऐसा ही वचन दे हर कोई
रक्षा करूँगां जब भी तुझ पर विपदा आई ,
जब भी रक्षा की करे पुकार
दौड़ कर आना बार – बार ,
बांधी है जो रक्षा की डोर
एक सिरा है इस ओर ,
खिचूंगीं जब मैं हार कर
दौड़ना तब तुम कृष्ण बनकर ।
*द्रौपदी का नाम
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 04/08/2020 )