#रक्तरंजित#
होके रक्तरंजित मैं पडी हूँ लथपथ निढाल।
ना कोई रहा सुध लेने वाला मेरी,
धरा पर इंसानियत का अब क्यूँ हो रहा अकाल।।
देख मुझे अट्टाहास कर रहा गगन,
त्रेता,सत्य,द्वापर युगों से देखती आई मानवता।
पर,कली ने घाव दीये मुझे सबसे ज्यादा।
एक जख्म भरा नहीं की दूजा हरा हो जाता।
क्या सुर्यास्त क्या सुर्योदय अब मुझे निद्रा आती नहीं।
पडी हूँ बेहाल।।
दर्द से कराह उठती मेरी रूह पर,
इसानों की बस्ती में नहींं है कोई हलचल।
पूर्व युगों में तो रणक्षेत्रों में होता था रक्तपात।
अब तो हर घर-चौबारों में मची है मारकाट।
जहाँ देखो,वहां क्लेश,
पहले तो नही थी ऐसे मानवता की परिवेश।
ब्रम्हांड की परिक्रमा करते,
थक चुकी मै दुष्ट मानवों को ढोते-ढोते।
अब दर्द हो रहा है विशाल।।
पहले मुझे धरती मां बोलकर मेरी पूजा होती थी।
अब जमीन सम्बोधित कर उपहास कर रहा इंसान।
पर्यावरण का कत्लेआम जिस बेरहमी से हो रहा,
उससे दर्द बेइंतहा हुआ है मुझे।
इसकी सजा आज इंसान खुद भुगत रहा है।
कई तरह के महामारी पधार चुकी हैं,
हाहाकार मचाने के लिए।
करोना, सुनामी,
यास जैसे खतरों ने धरती पर कहर बरपा रखा है।
त्राहिमाम-त्राहिमाम की वेदनामय ध्वनी से गूँज रहा है आसमान।
जैसी करनी, वैसी भरनी को चरितार्थ कर रहा है इंसान।
अगर मेरी करूण – क्रन्दन ना सुनाई दिया इंसानों को,
असहनीय पीडा से मुक्त न हुई तो
खत्म हो जाऐगी मेरी सहनशीलता।
आ जाऐगा महाविनाश, महाप्रलय।
खत्म हो जाऐगी इंसानों की वस्ती।
तब जाके समझ आऐगा इंसानों को,
तब करेंगे इंसान फिर से मेरी देखभाल।
लोग पुनः पुछने लगेंगे मेरी हालचाल।।
द्वारा कविः-Nagendra Nath mahto.
16/June/2021
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मौलिक व स्वरचित रचना।
स्वरचित रचनाकार,कवि,गीतकार,
संगीतकार व गायक :-Nagendra Nath mahto.
All copyrights:- Nagendra Nath Mahto.