रक्तरंजन से रणभूमि नहीं, मनभूमि यहां थर्राती है, विषाक्त शब्दों के तीरों से, जब आत्मा छलनी की जाती है।
अंतर्मन की संवेदनाएं, मूक दर्शक बन रह जाती है,
आस्था संचित ज्योति को, शीतल पवन छल जाती है।
पथ हीं पथिक की आशाओं को, मार्ग में यूँ भटकाती है,
गंतव्यों की छवि दिखा, जीवन को यात्राओं में उलझाती है।
स्वयं के सपनों को विखंडित कर, आँखों की लालिमा बढ़ाती है,
और फिर अश्रु की दो बूंदों को, नैनों को तरसाती है।
रक्तरंजन से रणभूमि नहीं, मनभूमि यहां थर्राती है,
विषाक्त शब्दों के तीरों से, जब आत्मा छलनी की जाती है।
भोर की किरणें, सदा के जैसे क्षितिज़ से तो टकराती है,
पर उस हृदय की रात्रि के सूत्रों को, स्पर्श नहीं कर पाती है।
ज्वलंत मन के घावों पर, जब भी वो मरहम रख आती है,
अनभिज्ञता में उस पीड़ा की, गहनता को और बढ़ती है।