रंग-ए-बाज़ार कर लिया खुद को
यूँ गुनहगार कर लिया खुद को
जैसे अखबार कर लिया खुद को
मिट गया है वजूद ही मेरा
इतना लाचार कर लिया खुद को
जब नशा चढ़ गया अमीरी का
उसने करतार कर लिया खुद को
ढूँढलो मर के भी मैं जिंदा हूँ
तुझमें साकार कर लिया खुद को
दो निवाले को ईमाँ बेच दिया
रंग-ए-बाज़ार कर लिया खुद को
बोली अपनी ही जो लगाता है
वो खरीदार कर लिया खुद को
“अश्क” आँखों से अब नहीं बहते
ऐसा दीवार कर लिया खुद को
– “अश्क”