रंगमंच
है ये दुनिया तो एक रंगमंच, लगा रहता जहाँ आना जाना।
अपने अपने जगह सभी को, है नए नए किरदार निभाना।।
कोई यहाँ बिख्यात हो गया, तो कोई ज़ालिम है कहलाया।
कोई मानवता का बना दूत, जो जन जन सेवा अपनाया।।
और रह गया कोई स्थिर सा, भोजन और प्रजनन भर में।
हिंसा, द्वेष, कलुषितता कारण, भटके पथ पर दर दर में।।
विस्मयकारी चिंतन यह कि, मानव जन्म क्यों व्यर्थ हुआ।
अपना पराया कह आपस मे, लड़ते ये कैसा स्वार्थ हुआ।।
अब तो जीवन चक्र में खुद का, पाठ अदा वो कर जाओ।
बेटा, भाई, पति, पिता सम, रिश्ते की मर्यादा धर जाओ।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित २७/०१/२०२०)