ये ज़िन्दगी जाने क्यों ऐसी सज़ा देती है।
ये ज़िन्दगी जाने क्यों ऐसी सज़ा देती है,
कागज़ की कश्ती छीन, हाथों में पतवार थमा देती है।
ओस की बूंदें तो भोर के सहारे गिरा करती हैं,
पर तपिश सूरज की बिन कहे, नंगे पावों से मिला करती हैं।
कभी सोंधी खुशबू मन के आँगन को महका देती है,
अब तो शहर की धूल है, जो सुबह को चहका देती है।
पक्की सड़कें घर की दहलीज़ को कुछ ऐसे छू के जाती हैं,
की घर के चिरागों को हीं, घर से दूर ले जाती हैं।
कभी लबरेज़ हुआ करते थे, आँचल पसीने की खुशबू से,
अब गांठें पड़ती हैं, उनमे बस आँसुओं की छीटों से।
दोराहे पे खड़ा मन सोचे, घर जब जाऊंगा,
उस खंडहर में बसी यादों को छू के आऊंगा।
गर्वित हो झुर्रियॉँ, अब उन हाथों को सजा कर रखती हैं,
जिसके एक कौर का एहसास, मेरी क्षुधा को मिटा सकती है।
कानों में अब भी तेरी लोरी की तान बजती है,
बस जिम्मेवारिओं के तले आवाज़ें थोड़ी सी दबती हैं।
ये इंतज़ार बस तेरी दो आँखों की अमानत नहीं,
मैं भी तरसता हूँ, तेरी गोद को बस कहता नहीं।