ये ज़िंदगी
खुली आंखों से ख्व़ाब देखते रहे ज़िंदगी समझ ना पाए।
बहुत हौसला था श़िद्दत से मंज़िल पाने का पर नस़ीब जगा ना पाए।
बहुत हुऩर पाया था लिखने का पर जो भी लिखा उसे खुद पूरा न समझ पाए।
जिन्होंने दिल पर जख्म़ दिए उन्हें बेवफ़ा कभी मान ना पाए।
दिल आग़ाह करता रहा पर आंखों में छाये ग़ुरुर से हक़ीक़त ना पहचान पाए।
दिल ऩादान रहा जो दिल का क्या खेल है ये समझ पाए।
सब को अपनाते रहे ज़िंदगी भर पर किसी के अपने बनकर ना रह पाए।