ये शीत रैन करते बेचैन
सूर्यदेव हो चले हैं अस्त
निज रश्मियों को लिए समेट
प्रभात का चिन्ह रहा न शेष
रातों ने अपनी सजायी सेज.
हुए दूर सघनता में विलीन
नभ की अनंतता है असीम
दिनकर की किरणें हुई है क्षीण
आभा हुई मुख की मलीन.
दिवस ढला दीपक जला
आलोक घर घर में भरा
द्वारों पर मौन गहरा रहा
गलियों में सन्नाटा बढ़ा.
रैन बसेरा बनकर खड़े
है अनगिनत तरुवर बड़े
आश्रय विहीन आकर ठहरे
है समीर सांझ की दुःखभरे.
ये शीत रैन करते बेचैन
हरते है चैन जगते है नैन
कंपित है तन विचलित है मन
दंडित हुआ जैसे चमन.
रजनी कुपित है भयावनी
बैठी है छुप के तरुवासिनी
कहती है घर की भामिनी
निष्ठुर बड़ी है यामिनी.
भारती दास ✍️