ये शादी के बंधन
वो शादी के बंधन हैं झूठे सभी
जहाँ मन से मन की लगन ही न हो
वो अग्नि वो फेरे भी किस काम के
जहाँ प्रेम की कुछ अगन ही न हो
जहाँ पर ये जीवन समर्पण नहीं
जहाँ साफ़ मन का , ही दर्पण नहीं
वहाँ बस दिखावे हैं रस्मों के सब
जहाँ मन से मन को ही तर्पण नहीं
तेरे संग आई थी सब छोड़ कर
अपने सभो का ही दिल तोड़ कर
वो बाबुल वो मैया वो सखियाँ सभी
चली आई सब से ही मुँह मोड़ कर
मगर त्याग को मेरे जाना नहीं
समर्पण को मेरे क्यों माना नहीं
मतलब विवाह का ग़ुलामी है क्या
क्यों मन को मेरे पहचाना नहीं
जहाँ आत्माओं का , संगम न हो
जहाँ प्रीत मिश्रित ही जीवन न हो
वहाँ क्या विवाहों का मतलब रहा
जहाँ मन परस्पर ही रोशन न हो
सुन्दर सिंह