ये शहर की शाम
ये शहर की शाम
मैं इसमें कही फिर रहा गुमनाम
ये आते जाते लोगों का मेला
हजारों हैं, फिर भी मैं अकेला
कही से शुरू होती हैं चार राहें
मैं खड़ा देख रहा लोगो के सपने भरी निगाहें
कोई जाम से लड़खड़ाता चला रहा
तो कोई पसीने में सनी रोटी कमाता चला जा रहा
पुतले शान से राजा की पोशाक में रखे
तो कही कपकपाते बदन कोने में हैं दबे
कही जिंदगी पहले सांस से आंसू पोंछ रही
तो कही मौत की चादर ओढ़ रही
कोई इरादे लिए रातों को जाग रहा
तो कोई जाग कर घर की मर्यादा लांघ रहा
ये शहर की शाम
मैं इसमें कही फिर रहा गुमनाम ।