“ये शब्दों का लिबास ओढ़कर, जब तुम आती हो”
ये शब्दों का लिबास ओढ़कर,
जब तुम आती हो||
गुनगुनी धूप सी चादर हो जैसे,
मन को तुम सेंक जाती हो||
क्या कहूँ ,कभी ओस सी लगती हो,
कभी दूब सी लगती हो,
तो कभी मखमली अरमान बिखेर जाती हो||
ये शब्दों का लिबास ओढ़कर,
जब तुम आती हो||
क्या कहूँ, कभी कली सी लगती हो,
कभी पल्लव सी लगती हो,
तो कभी बहती दरिया सी उमड़ जाती हो||
ये शब्दों का लिबास ओढ़कर,
जब तुम आती हो||
क्या कहूँ, कभी रात सी लगती हो,
कभी प्रभात सी लगती हो,
तो कभी उमड़ते बादलों सी छा जाती हो||
ये शब्दों का लिबास ओढ़कर,
जब तुम आती हो||
एे कविता! तुम भी ना, कैसे कहूँ,
क्या कहूँ, मेरे वज़ूद में समा जाती हो||
…निधि…