ये लड़कियाँ
डा ० अरुण कुमार शास्त्री // एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त ????
चन्द पंक्तियाँ इस चित्र के माध्यम से इन महिलाओं के लिए —
मुझे अच्छा लगा
तुम्हारा इस तरहा
बाँट लेना अपने
मुरझाये हुए मन को
आपस में चन्द
सखियों से घिर जाना
अपने अपमान को भूल
तिरस्कार को तिलान्जलि देना
मुझे यकीन मानो अच्छा लगा
तुम ने कोशिश तो
करी छुपा ने की
अपनी उदासी अपना अपमान
अपने ही प्रिय के हान्थों
वो अवसाद वो घरेलू हिँसा
सभी को नही आती ये कला
टूट जाती हैं बीच में ही
कर लेती है समाप्त खुद को
जब सहा नही जाता होगा
दुख विषाद ताने अपशब्द
मुझे अच्छा लगा इस तरहा
अपने पुराने दिनों में वापिस लौट आना
लड़कियों को आता है
उदासियों को भूल जाना
उन्हें आता है पल में तोला
पल में मासा हो जाना
अपने दर्द को भूल जाना
कौन सिखायेगा ये तो
खुद से सीख जाती है
वो अपनी सखियों संग
हिलमिल खिलखिलाना
वो जानती हैं वो सभी तो एक
जैसे परिवेश में ही रह्ती हैं ना
वो जानती हैं सभी के
दुख एक जैसे ही तो होते हैं ना
वो जानती है उनमें जीना
उन में टूट टूट टूटना बिखरना
और उनसे निपटना
फिर बिखरना और जुड़ जाना
आखिर और कोई
रास्ता भी तो नही है
मुझे अच्छा लगा
तुम्हारा इस तरहा
बाट लेना अपने
मुरझाये हुए मन को
चन्द सखियों से
घिर जाना अच्छा लगा
तुम ने कोशिश तो
करी छुपा ने की
अपनी उदासी
मुझे अच्छा लगा
इस तरहा
अपने पुराने दिनों में
वापिस लौट आना
जब तुम अपने बाबुल के घर में थी
खिलखिलाती चेह्चाहती नन्हीं सी
जब तुम अपने भैया से लड़ कर
अपनी बात मनवा लेती थी
हार कर भी जीतने के वो किस्से
मुझे याद हैं कभी रूठ्ना
कभी नाटक करना
उनका प्यार पाने को
मुझे अच्छा लगा तुम्हें याद है
मुझे अच्छा लगा तुम्हें
जीने की कला आती है
विकट परिस्तिथियों में
खुश रहना मुस्कुराना
और सबको खुश रखना
सबके मुस्कुराने की
वजेह बन जाना
मुझे अच्छा लगा तुम्हें याद है
मुझे अच्छा लगा तुम्हें खुश देख कर