ये राष्ट्रवाद-राष्ट्रवाद क्या है?
हमारे देशवासियों का ‘राष्ट्रवाद’ विशेष तौर पर भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच के दौरान देखने को मिलता है. अगर हम मैच हार जाते हैं तो हमारा मुंह लटक जाता है और यदि जीत गए तो फिर राष्ट्रवादी उन्माद देखिए. शराब-शैंपेन की बोतलें खुल जाती हैं, आतिशबाजी के शोर के बीच नारे लगने लगते हैं- ‘‘आधा पानी, आधा दूध; पाकिस्तान की….’’ पूरा आप करिए. मैं नहीं कर सकता. यह नजारा किसी गांव-खेड़े में ही नहीं महानगर कहे जाने वाले शहरों की संभ्रांत बस्तियों में भी देखने को मिलता है. क्रिकेट का यह कैसा रोमांच है. यह सिर्फ रोमांच नहीं है, नफरत इससे और गहरे बैठती है. अगर सिर्फ क्रिकेट खेल से रोमांच होता तो हर मैच के साथ होना चाहिए. बैटिंग, बोलिंग, छक्का, चौका तो अन्य देशों के साथ होनेवाले मैचों में भी होता है. साफ है पाकिस्तान के साथ ही मैच के दौरान हमारी यह प्रवृत्ति न तो रोमांच है, न ही राष्ट्रवाद, सीधा-सीधा नफरतवाद है. नफरत की बुनियाद पर यह राष्ट्रवादी रोमांच किसी काम का नहीं. इंग्लैंड की टीम से जब मैच होता है तब फिर यह द्वेषतापूर्ण उन्माद देखने में क्यों नहीं होता? जबकि उन्होंने भी तो देश को सैकड़ों वर्ष गुलाम रखा. सिर्फ पाकिस्तान से मैच के दौरान यह द्वेष झलकने का संबंध साफ-साफ देश की आंतरिक राजनीति से है. देशवासियों को हर समय यह बताया जाता है कि एक पाकिस्तान तो देश के अंदर ही है. मुझे अपने शहर के वे प्रसंग बहुत अच्छी तरह याद हैं कि जब भी पाकिस्तान से भारत मैच जीतता था, तब किसी खास संगठन से जुड़े लोग ही आगे आकर किसी खास बस्ती के पास जाकर पाकिस्तान के खिलाफ नारेबाजी कर जश्न मनाते थे. कालांतर में यह प्रवृत्ति व्यापक होती गई. फिर बाद में देखादेखी अन्य लोग भी करने लगे. खेल को खेल भावना से लेना चाहिए. राजनीति का क्षेत्र अलग है. कभी पाकिस्तान से खेल बंद कर देना, कभी शुरू कर देना, यह क्या है? फिर तो खेल खेल नहीं रहा, राजनीति हो गई. खेल सदा हर देश के साथ चलते रहना चाहिए, देश के नफे-नुकसान के आधार पर राजनीति भी होते रहनी चाहिए. लेकिन राष्ट्रवाद के नाम पर पूरे देश से और पूरी कौम से नफरत कहां तक ठीक है?
यूं तो यह हमारी फितरत है पर खासकर इन दिनों निजराष्ट्र और स्वयं के दुनिया में महान होने और दूसरे देश के तुच्छ होने को ही राष्ट्रवाद का पर्याय समझा जा रहा है. अगर ऐसे में कोई राष्ट्र की कमियों पर चर्चा करता है तो झट उसे राष्ट्रद्रोही ठहराकर पाकिस्तान चले जाने को कहा जाता है. मेरी नजर में इस तरह का राष्ट्रवाद एक गलत और विरोधाभास पैदा करने वाली अवधारणा है. यह लोगों में केवल हिंसा और अलगाव की भावना पैदा करती है. साथ ही हमें कूपमंडूक (कुएं का मेंढक) बनाती है.
असल में हर देश अपने हिसाब से महत्वपूर्ण है. फिर हम किस तर्क से यह कहने लगते हैं कि हमारा देश ही सबसे महान है या फिर अच्छा है. आप किसी पाकिस्तानी से पूछो या फिर किसी भारतीय से, दोनों कहेंगे कि उनका देश ही सबसे अच्छा है. मेरे विचार में दोनों गलत हैं क्योंकि दोनों की सोच में केवल कल्पना भरी हुई है. वे जो सोच रहे हैं, वह सच नहीं है.
किसी भी राष्ट्र की पहचान का आधार उसकी सीमारेखा होती है. अब सीमारेखा क्या है? सीमारेखा वह लाइन है जो किसी क्षेत्र के बंटवारे का निर्धारण करती है. अब जो चीज बांटती हो, उसे आप महान कैसे बता सकते हैं? इस कथित देशभक्ति के अलावा भी दुनिया में कई विवाद मौजूद हैं जो नफरत बढ़ाने का काम करते हैं. असल में आदर्श रूप में देखें तो राष्ट्र को एक प्रशासनिक इकाई के तौर पर देखा जाना चाहिए. कानून के पालन, गवर्नेंस और जनहित के कामों के विकास के लिए ‘राष्ट्र’ की अवधारणा व मौजूदगी जरूरी है. लेकिन इससे आगे इसका कोई और मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए. हम समय-समय पर हम जिस कट्टर राष्ट्रवाद को दर्शाते हैं और राष्ट्र को ‘मदरलैंड’ या ‘फादरलैंड’ की संज्ञा देकर विवाद मचाने लगते हैं, उससे बचना चाहिए. लोगों को अपनी सोच और बड़ी करने की जरूरत है.
जानवरों में भी अपना कोई विशेष क्षेत्र बना लेने या कब्जा करने की प्रवृत्ति होती है. कुत्ते बिजली के किसी खंभे तक को या बाघ किसी शीशम के पेड़ को अपने क्षेत्र के तौर पर अंकित कर लेता है. मुझे लगता है कि हम इंसानों को अपनी सोच विकसित करनी चाहिए और नियंत्रण की इस लड़ाई से खुद को दूर करना चाहिए.
यह बात सही है कि हम जहां जन्म लेते हैं या लंबे समय से रह रहे होते हैं, उसके लिए हमारे दिल में एक विशेष लगाव हो जाता है. लेकिन यह केवल एक आदत और उस जगह से खास परिचय की बात है. अगर कोई उस जगह को छोड़कर कहीं और जाता है तो यह एक अतीत की याद बनकर रह जाता है. इस अहसास को या कहें कि इस लगाव को उस हद तक जमीन से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. आप किसी एक व्यक्ति को उसके घर से कुछ किलोमीटर दूर या फिर कुछ सौ किलोमीटर दूर ही क्यों न ले जाएं, इसके बावजूद उसके दूर जाने का संदर्भ उसके जन्म स्थान से ही जुड़ा रहेगा.
बचपन से हमारे दिमाग में यह बात भर दी जाती है कि राष्ट्र सबसे ऊपर है. फिर हमें यह भी बताया जाता है कि राष्ट्र को मां की तरह मानना चाहिए. वह ऐसी देवी है जिसके चरणों में हमें खुद को समर्पित करना चाहिए. हमें यह प्रतिज्ञा दिलाई जाती है कि जरूरत पड़ने पर हम उसकी रक्षा के लिए अपनी जान भी दांव पर लगा देंगे. लेकिन उसी राष्ट्र के अंदर रहते हुए हम झूठ बोलते हैं, धोखेबाजी करते हैं, मर्डर करते हैं, दूसरे की कमजोरी का भरपूर फायदा उठाते हैं, ऊंच-नीच, छुआछूत मानते हैं, ट्राफिक नियमों का पालन नहीं करते, एंबुलेंस को पास नहीं देते, हर जगह अपनी रसूख का इस्तेमाल कर लाइन तोड़ते हैं, टैक्स नहीं देते और अपनी छोटी सी जिंदगी में न जाने और कितने ऐसे नकारात्मक काम करते रहते हैं, तब हमारा राष्ट्रवाद कहां जाता है? लेकिन जब किसी बाहर के देश को लेकर बात होती है तो हम कहने लगते हैं कि वह हममें से नहीं है. कभी-कभी तो हम उसे अपना दुश्मन मान लेते हैं. भारत-पाकिस्तान मैच के दौरान तो बदन के जर्रे-जर्रे में राष्ट्रभक्ति समा जाती है. लहू के एक-एक कतरे में हीमोग्लोबिन, रक्त कणिकाएं नहीं बल्कि भारत मां की सुंदर तिरंगा लिए तस्वीर समा जाती है. लोग खुद रोमांचित होने से ज्यादा यह देखते हैं कि विराट के छक्का जड़ने से कौन-कौन खुश हो रहा है, कौन नहीं हो रहा है. किन-किन बस्तियों में खुशियां मनाई जा रही हैं, किन-किन में नहीं मनाई जा रही हैं. बहुत हो चुका भावनाओं का यह स्खलन, झूठी देशभक्ति, झूठा राष्ट्रवाद. यह बंद होना चाहिए. अब समय आ गया है कि लोग उस पारंपरिक सोच से आगे बढ़ें. लोगों को समझने की जरूरत है कि राष्ट्र या राज्य एक प्रशासनिक इकाई भर है. ठीक वैसे ही जैसे दूसरे राज्य, क्षेत्र, जिले, तहसील या ग्राम पंचायत हैं. अपनी शक्ति, बाहुबल या नफरत से झगड़ों को खत्म करने की कोशिश क्या जानवरों जैसी प्रवृत्ति नहीं है.
(21 जून 2017 को फेसबुक में पोस्ट किया था)