ये बारिश की बूंदें ऐसे मुझसे टकराईं हैं।
ये बारिश की बूंदें ऐसे मुझसे टकराईं हैं,
शायद तुम्हें ढ़ुढ़ते ढुंढते मेरे पास चली आईं हैं।
ये जमीं की खुशबू फिज़ा में ऐसे छायी है,
जैसे मेरे ज़हन में हर वक़्त तेरी परछाई है।
ये उन्मुक्त घटायें सवालों को साथ लायीं हैं,
क्यों तेरे कारवां में बस तू और ये तन्हाई है।
वो चार कदमों से मंजिल की तलाश में चले थे,
पर रास्तों ने हीं उनकी राह को नज़र लगायी थी।
सपनों के राख बनने की खबर ऐसे आयी थी,
कि नसीब ने क्रूरता से उनकी चिता सजायी थी।
फिर विश्वास और अविश्वास में जिंदगी कशमशायी थी,
सत्य को स्वीकारने में हीं सदियों की रातें गवायीं थी।
कहते हैं जाने वाले आते नहीं लौट कर,
फिर क्यों ये बरसात तेरे एहसासों में नहायी है।
ठंडी हवा ने सूकून की चादर यूँ ओढ़ाई है,
इक बार फिर से लबों पे मुस्कान उतर आयी है।
लगता है क्षितिज के उस पार से तूने आवाज लगायी है,
राख तो बस जिस्म हुआ था, रूहे-मुहब्बत ये पैगाम लेकर आयी है।