फितरते फतह
ये फितरत की कुदरत पर
क्यों हजार परत है चढ़ती ।
ये भोली-भाली सूरत पर
क्यों हजार सूरत है गढ़ती ।।
ऐसे ही नही बदलती
ये फितरत और ये सूरत ।
जो जब चाहे बदल ले
जैसी हो जिसकी जररूत ।।
ये फितरत और ये सूरत
शख्स की होती है पहचान ।
चालाकी और बनावे से
दोनों ही होती है हलकान ।।
वो फितरत फितरत नही
जो बदल जाए देख मंजर ।
लाख छुपाने से भी ये
फितरत आ ही जाती नजर ।।
जमाने से वेवफाई से
बदनाम होती है शख्सियत ।
चालबाजो के चोचलों से
रंग बदलती है फितरत ।।
फर्जी,जाली-नकली में कभी
फितरत भी लगती नकली ।
पर दिल की गहराई में गढ़ी
फितरत ही मिलेगी असली ।।
होता शख्स का जमीर
शख्स का डीएनए फितरत ।
फितरत से ही शख्स पे
लगे ताज या लगती तोहमत ।।
शख्सियत है आनी-जानी
रहे फितरत की हमेशा हैसियत ।
नकली बनावटी दिखावे नही
इंसान की फितरत ही असलियत ।।
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मौलिक एंव स्वरचित: कविता प्रतियोगिता
रचना संख्या -१५: मई २०२४.©जीवनसवारो