ये प्रेम ही तो है…
तुम्हारे ये श्रृंगार का आधार
और इन भावनाओ का उदगार
उमड़ता एक अलग संसार
जो ले रहा विशाल आकार
ये प्रेम ही तो है
जो देता एक नया उमंग
मन में उठते तरल तरंग
प्रफ्फुल्लित हो उठते ये अंग
जिससे तुम बन जाते विहंग
ये प्रेम ही तो है
जिसमे ना कोई है ललक
खुद में खो जाने की सनक
यूँ विहान से सांझ तलक
जिसमें हो माधुर्य की झलक
ये प्रेम ही तो है
जिसमे अधरों का नहीं काम
आँखे लेती हैं दृष्टी के जाम
जिसमे मस्तिष्क करता आराम
और ह्रदय करता सफ़र तमाम
ये प्रेम ही तो है
तुम्हारे इन होंठों की मुस्कराहट
मानो खोलती है बिन शब्दों के पट
सामना करती भावनाओं का डट
फिर भी आ जाती लज्जा की आहट
ये प्रेम ही तो है
तो पास आओ बैठो मेरे
इस प्रेम की मीमांसा बनाए
इस माधुर्य के गहरे सागर में
हम दोनों गोते लगायें
तुम भी आगे बढ़ो साथ आओ
और छोड़ दो ये शर्म
ह्रदय का रहस्य बताकर
अब तो तोड़ो मेरा भ्रम
खुलकर कह दो मुझसे
वो जो तुम भी करती हो
ये प्रेम ही तो है