अलाव
पहले घरो के आगंन में जलता अलाव था ,
साथ बैठता था परिवार ,उसमे एक लगाव था ,
भूनकर खाते थे मटर के दाने उसमे,
नही मिला कही वो स्वाद ,उस खाने में एक चाव था ,
अब अलग अलग घर है ,घरों में कमरे भी अलग है ,
है सब अपने , है साथ , फिर भी सब अलग है ,
रूम हीटर ने ले ली जगह अब कहाँ अलाव जलते है ,
किसने ,किसको कब क्या कहा , दिलों में बस ये घाव पलते है ,
अब कहाँ होती है ,वो सुबह,जहाँ चाय मिलकर सब पीते थे ,
काटते नही ,वक़्त को लगता है मानो वो जीते थे ,
कहाँ होती है वो सुबह ,
अब तो ओ बस जिम्मेदारियों के तले दिन ढलते है ,
किसने किसको कब क्या कहाँ ,दिलों में ये ही घाव पलते है …….,
कसूर नही किसी का, कुछ जरूरतें बढ़ी और कुछ लालच भी ,
हो गए आधुनिक ,बन गया शहर जो पहले गावं था,
वरना पहले घरों में जलता अलाव था ……………साथ बैठता था परिवार …
साथ बैठता था परिवार ,उसमे एक लगाव था ,