ये जिंदगी एक उलझी पहेली
ये जिंदगी एक उलझी पहेली्
कभी संगदिल कभी है सहेली
ये जिंदगी एक उलझी पहेली
कुछ भी करो पर सुलझती नहीं है
जितनी भी समझो उलझती रही है
किसी की चिता बन जाए पल में
किसी का ये दामन वर्षों ना छोड़े
कहीं पर हंसी कहीं आंसू बनी है
कहीं जुस्तजू कहीं आरज़ू बनी है
दे जाए खुशियां कहीं पर हजारों
कहीं गम से रिश्ता ये ना टूटने दे
किसी का फसाना किसी की ग़ज़ल है
कहीं सेज कांटों की कहीं पर कंवल है
कोई जी रहा है अपनी ही मय में
किसी के लिए जिंदगी गम भरी है
कोई ख्वाब लेता है इस जिंदगी के
तो कोई कोसता है इस जिंदगी को
आशा बनी कहीं निराशा बनी है
कहीं रोशनी कहीं अंधेरा बनी है
बचपन की यादों का झरोखा है या
ढलती उम्र का तकाजा है जिंदगी
ना समझे तो कुछ भी नहीं है लेकिन
सोचे तो सागर से गहरी है जिंदगी
इस जिंदगी के रूप है क्या क्या
कैसे कोई पहचान करें अब
कहीं फूल कहीं धूल बनी है
इस जिंदगी को ना अपनी समझना
घड़ी दो घड़ी की मेहमान है जिंदगी
कहीं पे ये डोली कहीं है जनाजा
कहीं सुबह कहीं श्याम है जिंदगी
या फिर है जैसे नदिया की धारा
सुख और दुख जैसे इसके किनारे
इस जिंदगी का भरोसा भी क्या है
हंसते को पल में रुला दे जिंदगी
रोते को पल में हंसा दे जिंदगी
ढूंढा बहुत पर कहां है जिंदगी
सोचा बहुत पर क्या है जिंदगी
नशा ऐसा जैसे शराब हो कोई
बगिया का जैसे गुलाब हो कोई
जैसे पथिक की प्यास है जिंदगी
कोई खुबसूरत अहसास है जिंदगी
कहने को बहुत कुछ है ये लेकिन
सोचे तो फिर है ये कोई पहेली
‘विनोद’जिंदगी एक उलझी पहेली
कभी संगदिल है कभी है सहेली
धन्यवाद्
(विनोद चौहान)
(12/03/1999 की शब्दरचना)
्