**ये गबारा नहीं ‘ग़ज़ल**
चंद सिक्कों की खनक की खातिर ,
चंद सिक्कों की खनक की खातिर ,
बेच दूँ अपना जमीर ‘ये गबारा नहीं ‘।
जानता हु फरेबी सी दुनिया की हकीकत ,
हवा के झोंको में बहना ‘ये गवारा नहीं ‘।
आता नहीं हुनर फरेब और बेबफाई का हमें ,
झूठ के उसूलों पर चलना ‘ये गवारा नहीं ।
चौखट पे नाक रगड़ कर, पहनू उधारी का ताज ,
अपनी शान को यूं मिटाना ‘ये गवारा नहीं ।
ढूंढेंगे आंसुओं के दरिया में भी खुशियों के कतरे ,
बीच दरिया में डूब जाना , ये गवारा नहीं ।
अक्सर सच की राहों में ही मिलते है दर्द भरे कांटे ,
झूठ की राह पकड़ना, ‘ये गवारा नहीं ।
किनारों के मिलने से पहले जिंदगी से किनारा कर लूँ ,
सपनों को समुन्दर में डुबाना, ‘ये गवारा नहीं ।
मानता हु की राहों में कांटे बिछे है ‘असीमित’ ,
करना खुद्दारी का सौदा ,’ये गवारा नहीं ।
रचनाकार-डॉ मुकेश ‘असीमित’