ये अखबार… .
समय की अहमियत बताता ये अखबार
कैसे केवल एक दिन का मेजबान
दूसरी सुबह ही उसका काम तमाम!
सुबह होते ही आँखों की नजर में
दिन बीतते ही होता दरकिनार!
देश-विदेश,गली-मुहल्ले
हर रोज बताता सबका हाल
ये अखबार!
विज्ञापनों से पटा बलात्कारों
की खबरों से गुँथा हर रोज
अखबार!
मन सवाल करता हर रोज
सब अधूरा सा है!
बिन साहित्यिक परिशिष्ट के!
क्या एक पन्ना हर रोज देना
नहीं है सम्पादक को स्वीकार!
साहित्य छपे तो पैसे कहाँ
विज्ञापन छपे तो नोटों की
दरकार!
ऐसा हो गया है ये अखबार! फिर भी
एक प्याले चाय पर ना जाने
कितने शब्द समाहित हो जाते
मस्तिष्क में हर रोज!
घर बैठे दुनियाँ की
सैर करा देता अखबार!
सन्देश छोड़ता हम सबको!
करना है जो कुछ तुरन्त करो
वरना कल हो जाओगे मेरी तरह
तुम भी बेकार!
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शालिनी साहू
ऊँचाहार, रायबरेली(उ0प्र0)