यूँ भीख में लेना भी मंज़ूर न था…..
यूँ भीख में लेना भी मंज़ूर न था
मुहब्बत में इतना भी मजबूर न था
ये ज़िंदगी मेरी रोशन थी उससे
अगरचे वो चमकता कोहिनूर न था
आबादियों ने क्या दी पहचान ए दिल
बर्बादियों से पहले मशहूर न था
है कौन सी सूरत महबूब तिरी ये
मेरा सनम तो इतना मगरूर न था
इश्क़ बिन भी जितनी ज़िंदगी गुज़री
था ज़ायक़ा उसमें पर भरपूर न था
परवाह थी बिजली और तूफ़ान की
बरसात में जीने का शऊर न था
जितना समझते थे आप मुझे हरदम
मगर इतना भी तुमसे मैं दूर न था
हसरत भरा ये दिल खाली कर डाला
इस तर ह मैं हल्का कभी हुज़ूर न था
——–सुरेश सांगवान ‘सरु’