यूँ ना समझें कि वो ही हमको भुला बैठे हैं
यूँ ना समझें कि वो ही हमको भुला बैठे हैं
तमाम चराग़-ए-हसरत हम भी बुझा बैठे हैं
लब पे आ जाए जो ग़ज़ल बनकर वक़्ते-फुरसत
यूँ समझो बात अपने दिल की बता बैठे हैं
छूकर मन को गुज़र गई वो क्या बात थी जाने
सोचा ना था वहाँ पर हम दिल लगा बैठे हैं
ये आरज़ू रही है सिर्फ़ आँखों से हों बातें
क़िस्मत से वो मिले तो नज़रें झुका बैठे हैं
अब समझे मुँह हमसे वो क्यूँ फुला बैठे हैं
वो तो अपनी राह के पत्थर हटा बैठे हैं
उनकी तक़लीफ़ का आलम पूछ ना मुझसे तू
बाद मुद्दत के जो आज सुस्ताने ज़रा बैठे हैं
तेरी मेरी नहिं ‘सरु’ ये बात हवाओं की थी
इक दूजे पे यूँ हि उंगलियाँ उठा बैठे हैं