Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
14 Jun 2023 · 8 min read

युवा हृदय सम्राट : स्वामी विवेकानंद

युवा हृदय सम्राट : स्वामी विवेकानंद

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपने जोशीले व्याख्यानों और लेखों के माध्यम से जान फूँकने तथा भारत के आध्यात्मिक नेतृत्व को विश्व पटल पर पुनस्र्थापित करने वाले युगपुरुषों में स्वामी विवेकानंद एक ऐसे महापुरुष थे जिनके विचारों ने न केवल अपनी पीढ़ी के लोगों को प्रभावित किया बल्कि आने वाली कई पीढ़ियों के लिए जीवन के प्रति एक सुस्पष्ट मार्ग प्रशस्त कर दिया।
विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 को कलकत्ता के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। भगवान शिवजी का वरदानी होने से प्रथम नाम वीरेश्वर रखा गया। अन्नप्राशन पर उनका नाम नरेंद्रनाथ रखा गया। उनके पिताश्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के मशहूर वकील थे। माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। उनके घर में अकसर पुराण, रामायण, महाभारत, भगवतगीता पाठ व सत्यनारायण कथा का आयोजन होता रहता था। परिवार के धार्मिक एवं अध्यात्मिक वातावरण का प्रभाव नरेन्द्र पर भी पड़ा और उनके मन में बचपन से ही घर्म एवं अध्यात्म के भाव के संस्कार गहरे होते चले गए।
बालक नरेन्द्र अपने सभी मित्रों के साथ स्नेह और मृदुता का सम्बन्ध रखते थे। उनके मन में सबके प्रति विशेषकर गरीबों और साधु-संन्यासियों के प्रति सौहार्द्र का भाव रहता था। वे अपने गरीब मित्रों को पुस्तकें और पैसे देकर उनकी मदद भी किया करते थे। वे बचपन से ही बहुत साहसी, तर्कशक्ति में निपुण, स्पष्टवादी एवं कुशाग्र बुद्धि वाले थे। उनकी ग्रहणशक्ति अद्भुत थी। एक बार जो भी पढ़ या सुन लेते, वे उसे भूलते नहीं थे। एक बार उनके किसी शिक्षक की सेवानिवृत्ति के अवसर पर आयोजित एक विदायी समारोह के अवसर पर उन्होंने इतना प्रभावशाली भाषण दिया कि वहाँ उपस्थित मुख्य अतिथि प्रख्यात नेता श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने उनकी प्रशंसा में कहा था- ‘‘यह विद्यार्थी बड़ा होने पर बहुत बड़ा वक्ता बनेगा।’’ और उनकी बात अक्षरशः सही साबित हुई।
सन् 1879 में नरेंद्र ने कलकत्ता से हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की। सन् 1884 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए. पास किया। इसी वर्ष उनके पिताजी का देहांत हो गया और घर की जिम्मेदारी उन पर आ गई। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उन्होंने भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों एवं विचारकों की रचनाओं का गहन अध्ययन किया। इसी बीच उनके मन में यह विचार उठा कि ईश्वर आदि कुछ नहीं है, सब ढकोसला है। वे ईश्वर की खोज में इधर-उधर खूब भटके, लेकिन जो कुछ वह चाहते थे, उन्हें नहीं मिला।
नवम्बर सन् 1881 में नरेंद्र की भेंट स्वामी रामकृष्ण परमहंस से हुई। नरेंद्र ने उनके सत्संग से लाभ उठाना प्रारंभ किया। धीरे-धीरे उनके उपदेशों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अल्प आयु में ही संन्यास ले लिया। संन्यासी होने के बाद उनका नाम विवेकानंद हो गया। विवेकानंद ने पैदल ही पूरे देश का भ्रमण कर अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के विचारों को जन-जन तक पहुँचाया। देश में फैली गरीबी और लोगोें के कष्टमय जीवन को देखकर वे द्रवित हो उठे। उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि एक सच्चे धार्मिक व्यक्ति का प्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण दायित्व दुःखी एवं दरिद्र लोगों की सेवा तथा सहायता करना होना चाहिए।
विवेकानंद को भारत की प्राचीन संस्कृति व आध्यात्मिक धरोहर पर बहुत गर्व था। उनकी इच्छा थी कि वे भारतीय संस्कृति व हिंदू धर्म के आध्यात्मिक संदेश का प्रचार-प्रसार विदेशों में भी करें। सन् 1893 में संयुक्त राज्य अमेरिका के शिकागो शहर में एक सर्वधर्म महासम्मेलन होने वाला था। यह उस विश्व मेले का एक हिस्सा था, जिसका नाम कोलंबियन एक्सपोजीशन था और जिसका आयोजन कोलम्बस की अमेरिका की खोज की चार सौवीं सालगिरह के उपलक्ष्य में किया गया था। वहाँ दुनियाभर के बहुत से धर्मों के प्रतिनिधि आने वाले थे, पर वहाँ हिंदू धर्म का कोई भी प्रतिनिधि नहीं था। स्वामी विवेकानंद ने भारत की ओर से हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करने का निश्चय किया।
ये वह समय था जब आजकल की तरह यातायात के साधन उपलब्ध नहीं थे। बड़ी कठिनाई से वे अमेरिका पहुँच सके। उस समय यूरोप और अमेरिका के लोग पराधीन भारत और भारतवासियों को बहुत ही हीन दृष्टि से देखा करते थे। वहाँ उपस्थित लोगों ने बहुत प्रयास किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म महासम्मेलन में बोलने का अवसर न दिया जाए परंतु हारवर्ड विश्वविद्यालय के ग्रीक भाषा के प्रोफेसर जे.एच. राइट के प्रयासों से उन्हें सर्वधर्म महासम्मेलन के पहले दिन अंत में केवल तीन मिनट का समय बोलने के लिए मिला।
भारत उन दिनों गुलाम था। अमेरिकी लोगों को यह गलतफहमी थी कि भारत में सभ्य लोग नहीं रहते किंतु जब स्वामी विवेकानंद ने अपना भाषण ‘मेरे अमेरिकावासी बहनों और भाइयों’ से शुरु किया तो लोगोेें की गलत धारणाएँ दूर हो गईं। श्रोता अपनी कुुर्सियों से उठ खड़े हुए और तालियाँ बजाकर उनका स्वागत किए। विवेकानंद एकमात्र ऐसे वक्ता थे जिन्होंने औपचारिक शब्दों के स्थान पर इन आत्मीय शब्दों द्वारा संबोधन किया। हिंदू धर्म की अन्य सभी धर्मों के प्रति सहानुभूति के विषय में वे बोलने लगे। उनकी प्रस्तुति ऐसी थी कि वहाँ उपस्थित सैकड़ों लोगों को यह पता भी न लगा कि तीन मिनट कब बीत गए। स्वामी विवेकानंद ने अपना भाषण जारी रखा और सुनने वाले सुनते ही रहे। दूसरे दिन अमेरिका के अखबारों में उनके भाषण की चर्चा छाई रही।
सम्मेलन 11 सितम्बर, 1893 को प्रारंभ और 27 सितम्बर, 1893 को समाप्त हुआ। स्वामी विवेकानंद ने 11 सितम्बर को प्रथम और 27 सितम्बर को अंतिम व्याख्यान दिया था। उन्होंने 19 सितम्बर, 1893 को हिंदू धर्म की विशिष्टताओं पर जो व्याख्यान दिया, वह समस्त मानव जाति के लिए एक प्रेरक उद्बोधन था। उन्होंने उस धर्मसंसद को कुल छह बार सम्बोधित किया। इतनी बार बोलने वाले वे एकमात्र प्रतिनिधि थे। उनके भाषण उन सार्वभौमिक सिद्धांतों के विषय में थे जो हिंदुत्व के मूल आधार हैं। यथा- आत्मा की दिव्यता, आत्मज्ञान सबसे बड़ी उपलब्धि है और सब धर्मों के बीच शांति व सौहार्द का सिद्धांत।
विवेकानंदजी के व्याख्यानों से सिस्टर निवेदिता (इनका मूल नाम मार्गरेट नोबेल था।) इतनी प्रभावित हुईं कि वे उनके साथ भारत आकर बस गईं और हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगीं। यह महासम्मेलन सत्रह दिन तक चला। स्वामी विवेकानंद अकसर सबसे आखिर में व्याख्यान देते थे। उनका व्याख्यान सुनने श्रोतागण आखिरी क्षण तक अपनी कुर्सियों से चिपके रहते थे। अखबार उनकी खबरों से भरे रहते थे। शिकागो की सड़कों पर उनके आदमकद चित्र टाँग दिए गए थे। लोग उन्हें श्रद्धा से प्रणाम करके आगे बढ़ते थे। प्रबुद्ध लोग उन्हें अपने-अपने नगर में पधारने का अनुरोध करते।
स्वामी विवेकानंद ने सम्मेलन के बाद अमेरिका और इंग्लैण्ड के लगभग सभी प्रमुख नगरों, क्लबों और विश्वविद्यालयों में जाकर अनगिनत व्याख्यान दिए। वे लगभग चार वर्षोें तक वहाँ रहे। सभी जगह लोगों ने उनका भव्य और आत्मीय स्वागत किया। अनगिनत लोग उनके शिष्य बन गए। इनमें साधारण मनुष्य से लेकर बड़े-बड़े नेता, विद्वान, प्राध्यापक, अधिकारी और व्यवसायी लोग भी शामिल थे। ऐसे वैज्ञानिक, जिन्हें खाने के लिए भी प्रयोगशाला से बाहर निकलना कठिन था, उनका भाषण सुनने के लिए घंटों पहले सभास्थल पहुँच जाते और प्रतीक्षा करते थे। इस प्रकार विवेकानंदजी ऐसे पहले हिंदू धर्म प्रचारक संन्यासी थे, जो देश-विदेश में गए और जिन्होंने एक हिंदू राष्ट्र के सनातन धर्म का संदेश दुनियाभर के लोगों तक प्रभावशाली ढंग से पहुँचाया। इस प्रकार वे पूर्वी और पश्चिमी सभ्यताओं के बीच एक पुल बनकर उभरे।
पश्चिम के भौतिकवादी दृष्टिकोण से प्रभावित लोगों के सम्मुख भारत के आध्यात्मवाद का महान और गौरवयुक्त आदर्श प्रस्तुत कर स्वदेश लौटने पर स्वामी विवेकानंद ने भारतवासियों की अंतरात्मा को जगाने और देशवासियों की सेवा के लिए संगठन के माध्यम से कार्य करने की इच्छा से ही 1 मई, 1897 में कलकत्ता में गंगा के तट पर वैलूर में अपने विदेशी शिष्यों की आर्थिक सहायता से एक नई संस्था ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की। भारत के विभिन्न भागों में इसकी अनेक शाखाएँ खोली गईं। विवेकानंदजी की प्रेरणा से उनके साथियों और अनुयायियों ने पीड़ित मानव जाति के उद्धार के लिए अपने को समर्पित कर दिया। आज भी लगभग डेढ़ सौ शाखाएँ गरीबों के उत्थान और समाजसेवा के कार्यों में लगी हुई हैं। ‘रामकृष्ण मिशन’ को सामाजिक रचनात्मक कार्यों के लिए सन् 1998 के ‘गांधी शांति प्रतिष्ठान पुरस्कार’ सहित अनेक पुरस्कार एवं सम्मान भी मिल चुका है।
मार्च, 1899 में कलकत्ता में प्लेग फैलने का समाचार सुनकर स्वामी विवेकानंद अपने कुछ शिष्यों के साथ वहाँ पहुँच गए और प्लेग निवारण कार्य में जुट गए। प्लेग शांत हो गया तो वे अपने शिष्यों के साथ नैनीताल चले गए। कुछ समय बाद उन्होंने 19 मार्च, 1899 में देश में नारी शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से अल्मोडा़ से लगभग पचास मील की दूरी पर स्थित मायावती नामक स्थान पर अद्वैत आश्रम की स्थापना की।
सन् 1899 में स्वामी विवेकानंद ने दूसरी बार सिस्टर निवेदिता, स्वामी अभेदानंद तथा स्वामी तुरियानंद के साथ पश्चिमी देशों की यात्रा की। इस बार उन्होंने अमेरिका, इंग्लैण्ड, पेरिस, विएना, कुस्तुनतुनिया, हंगरी, ग्रीस तथा मिश्र देश के कई शहरों में व्याख्यान दिए। अत्याधिक कार्यभार के कारण उनके स्वास्थ्य में गिरावट आती रही। भारत लौटने के बाद भी स्वास्थ्य की बिना परवाह किए वे अपने कार्य में लगे रहे। उन्होंने बनारस में संस्कृत और वेदांत के अध्ययन के लिए एक पाठशाला की स्थापना भी की।
स्वामी विवेकानंद के ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यान की प्रसिद्धि दुनियाभर में व्याप्त है। उनका जीवन संदेश किसी देश, समाज या जाति विशेष के लिए नहीं है, न किसी वर्ग विशेष के लिए। वह तो मानवमात्र के लिए उच्च मानवीय आदर्शों का एक मानदंड है। वेदांत दर्शन के गंभीर सिद्वांतों को वे इस प्रकार समीकरण करते थे कि वह सबको सुलभ, सहजगम्य हो जाता है। वे एक व्यक्ति नहीं बल्कि विचार हैं। स्वामी विवेकानंद भावी पीढ़ियों के लिए शाश्वत महत्त्व की चार अनमोल ग्रंथ छोड़ गए हैं। वे हैं- ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग और राजयोग। ये हिंदू दर्शन के असाधारण धर्मग्रंथ हैं।
स्वामी विवेकानंद के लगातार यात्रा से उनके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा था, पर वे कि कहीं पर भी रूकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। कर्मठ एवं नियम के पक्के ऐसे थे कि कहा जाता है अपने जीवन के अंतिम दिन 4 जुलाई, 1902 को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रातः काल लगभग दो-तीन घण्टे तक अन्य दिनों की ही भांति ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही उन्होंने महासमाधि ले ली। इस दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की सारगर्भित व्याख्या की और कहा था कि- ‘‘एक और विवेकानंद चाहिए, यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है।’’
स्वामी विवेकानंद के उनचालिस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में मात्र दस वर्ष ही सार्वजनिक कार्यों में व्यतीत हुए और उसमें भी ज्यादातर समय उनकी शारीरिक अस्वस्थता के बीच। इस अत्यल्प अवधि में ही उन्होंने ऐसा काम कर दिखाया जिसकी किसी अन्य से तुलना भी नहीं की जा सकती। रोमां रोला के शब्दों में- ‘‘उनके द्वितीय होने की कल्पना भी असंभव है। वे जहाँ भी गए, सर्वप्रथम हुए….. हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे तथा सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी।’’
स्वामीजी बहुत ही आशावादी और स्वप्नदृष्टा थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें जाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा लिंग या वर्ग के आधार पर कोई भेदभाव न हो। उन्होंने वेदांत के सिद्धांतों को भी इसी रूप में हमारे समक्ष रखा। अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धांत का जो आधार विवेकानंद जी ने दिया उससे सबल बौद्धिक आधार शायद ही ढूँढा जा सके। उनको युवाओं से बड़ी आशाएँ थीं। आज के युवाओं के लिए इस ओजस्वी संन्यासी का जीवन एक आदर्श साबित हो सकता है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा है- ‘‘यदि भारत का अध्ययन करना चाहते हो तो स्वामी विवेकानंद का अध्ययन करो। उनके विचारों में सब कुछ सकारात्मक है, नकारात्मक कुछ भी नहीं है।’’
विश्व के अधिकांश देशों में कोई न कोई दिन युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में स्वामी विवेकानंद की जयंती अर्थात् 12 जनवरी को ही राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के निर्णयानुसार सन् 1985 को अंतरराष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया गया। इसके महत्त्व पर विचार करते हुए भारत सरकार ने घोषणा की कि सन् 1985 से 12 जनवरी को यानि स्वामी विवेकानंद की जयंती का दिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में देशभर में मनाया जाए। कालांतर में सन् 2000 से अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस पूरे विश्व में 12 अगस्त को मनाया जाने लगा।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़

Language: Hindi
422 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
आवाजें
आवाजें
सुशील मिश्रा ' क्षितिज राज '
शीशे को इतना भी कमजोर समझने की भूल मत करना,
शीशे को इतना भी कमजोर समझने की भूल मत करना,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
जिन्दगी हर क़दम पर दो रास्ते देती है
जिन्दगी हर क़दम पर दो रास्ते देती है
Rekha khichi
*फागुन का बस नाम है, असली चैत महान (कुंडलिया)*
*फागुन का बस नाम है, असली चैत महान (कुंडलिया)*
Ravi Prakash
शब्द लौटकर आते हैं,,,,
शब्द लौटकर आते हैं,,,,
Shweta Soni
देश चलता नहीं,
देश चलता नहीं,
नेताम आर सी
एक सांप तब तक किसी को मित्र बनाकर रखता है जब तक वह भूखा न हो
एक सांप तब तक किसी को मित्र बनाकर रखता है जब तक वह भूखा न हो
Rj Anand Prajapati
ज़रा मुस्क़ुरा दो
ज़रा मुस्क़ुरा दो
आर.एस. 'प्रीतम'
✍️ दोहा ✍️
✍️ दोहा ✍️
राधेश्याम "रागी"
इश्क़ में ज़हर की ज़रूरत नहीं है बे यारा,
इश्क़ में ज़हर की ज़रूरत नहीं है बे यारा,
शेखर सिंह
3154.*पूर्णिका*
3154.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
भिनसार ले जल्दी उठके, रंधनी कती जाथे झटके।
भिनसार ले जल्दी उठके, रंधनी कती जाथे झटके।
PK Pappu Patel
मैं
मैं
Dr.Pratibha Prakash
सामी विकेट लपक लो, और जडेजा कैच।
सामी विकेट लपक लो, और जडेजा कैच।
गुमनाम 'बाबा'
मुझे जगा रही हैं मेरी कविताएं
मुझे जगा रही हैं मेरी कविताएं
Mohan Pandey
चल बन्दे.....
चल बन्दे.....
Srishty Bansal
श्रृंगार
श्रृंगार
Mamta Rani
"भोपालपट्टनम"
Dr. Kishan tandon kranti
वो जो कहते है पढ़ना सबसे आसान काम है
वो जो कहते है पढ़ना सबसे आसान काम है
पूर्वार्थ
दिन भर घूमती हैं लाशे इस शेहर में
दिन भर घूमती हैं लाशे इस शेहर में
गायक - लेखक अजीत कुमार तलवार
आता एक बार फिर से तो
आता एक बार फिर से तो
Dr Manju Saini
घूंटती नारी काल पर भारी ?
घूंटती नारी काल पर भारी ?
तारकेश्‍वर प्रसाद तरुण
चुनिंदा अश'आर
चुनिंदा अश'आर
Dr fauzia Naseem shad
कभी उन बहनों को ना सताना जिनके माँ पिता साथ छोड़ गये हो।
कभी उन बहनों को ना सताना जिनके माँ पिता साथ छोड़ गये हो।
Sandhya Chaturvedi(काव्यसंध्या)
Dr Arun Kumar shastri
Dr Arun Kumar shastri
DR ARUN KUMAR SHASTRI
स्तंभ बिन संविधान
स्तंभ बिन संविधान
Mahender Singh
सोलह श्राद्ध
सोलह श्राद्ध
Kavita Chouhan
जलती बाती प्रेम की,
जलती बाती प्रेम की,
sushil sarna
*रंगीला रे रंगीला (Song)*
*रंगीला रे रंगीला (Song)*
Dushyant Kumar
💐💐कुण्डलिया निवेदन💐💐
💐💐कुण्डलिया निवेदन💐💐
भवानी सिंह धानका 'भूधर'
Loading...