युग की पुकार
कवि,स्वयं बना खलनायक,
कविता लुटी वाजार में।
कामुकता पर चली कलम,
नारी के श्रृगांर में।
सीता को दोषी ठहराया,
क्यों अकेली कुटिया में।
दुशासन की कर प्रशंसा,
दोष द्रोपती पहनाव में।
निश्प्राण रहा कवित्त,
वाणी और विचार में।
प्रतिभा हुई अपमानित,
लय,गति और राग में।
स्याही भी रूपसी कालिख,
हो गई बिरोध अन्दाज में।
क्षीण हुई रचना का शक्ति,
स्वार्थ,यश की चाह में।
मानवता अब पुकार रही है,
लिखों नवयुग के उत्थान में।