याद शहर
‘ याद शहर
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एक रोज मै याद शहर में यूँ ही उदास बैठा था। सड़क पर कोहरे की चादर फैली हुई थी । मैने देखा उस कोहरे की धुंध को चीरते हुए तुम लाल सुर्ख साड़ी पहने तमाम श्रृंगार किये हाथों में थाल सजाये चली आ रही थी । थोड़ा पास आयी तो मैने तुम्हे पहचान लिया । होठों पर आज भी वही चिरपरिचित मुस्कान थी । मेरा मन तुम्हे देखकर खुशियों से भर गया । आखिरकार 20 महीनों के लम्बे अर्से के बाद तुम लौट आयी थी अपने भाई की कलाई पर राखी बांधने के लिए । तुमने हाथ बढ़ाकर मेरी कलाई पर राखी बाँधी, तिलक किया और मेरी लम्बी उम्र के लिये कामनायें की । मैने तुम्हे नेग देने के लिये जेब में हाथ डाला, मगर मेरी जेब में कुछ नही था । तुम्हारी तरफ देखा तो तुम धीरे धीरे उसी कोहरे में अदृश्य हो रही थी जिधर से तुम आयी थी । मै तुम्हे आवाज लगाकर रोकना चाहता था, मगर मेरी आवाज अवरुद्ध थी, हाथ बढ़ा कर तुम्हे पकड़ना चाहा मगर तुम बहुत दूर जा चुकी थी ।
तभी किसी ने मुझे झिंझोड़ कर उठा दिया । मेरे हाथ अभी भी ऊपर उठे हुए थे । सब पूछने लगे तुम नींद में क्या बड़बड़ा रहे थे । मै कुछ नही कह पाया, अपने उठे हुए हाथ को देखकर बस मुस्कुराता रहा ।
याद शहर प्रकृति के नियमों से बँधा हुआ नही है वहाँ सर्दियों में भी राखी आ सकती है । वहाँ इंसान मरा नही करते अमर होते हैं ।
” सन्दीप कुमार ”
सर्वाधिकार सुरक्षित
मौलिक और अप्रकाशित