यादों की गठरी
समय का पहिया घूमा ऐसा, घूमी मन की चकरी मेरी।
खुलकर बिखर गई सामने, धूमिल यादों की गठरी मेरी।
ठंड बहुत थी मैं छोटी थी, अँगीठी सुलगा, देकर ताप,
पापा ने फिर से जिला दिया, बनी पड़ी थी ठठरी मेरी।
पापा बेटी गुनगुनी धूप में, ईख चूसते, मटर छीलते,
मुँहभर छोटा रसीला दाना, छाँटू नरम मटरी मेरी।
दीवाली दीए-पाली से पूजा, मैं पूछती पापा से तब,
भाई भरते खील थे, ऐसी कहो, कहाँ है हटरी मेरी?
इमरती-पुए मलिक स्वीट्स के, कनॉट प्लेस पापा ले जाते,
आलू छोड़, पपड़ी चट कर, समोसे की सब मठरी मेरी।
मेले सब जाएँ पैयाँ-पैयाँ, पापा के कंधे मेरा आसन,
इतराता बचपन सलोना, रहूँ ठाठ से अटरी मेरी।
पापा की लाडो, शहज़ादी, अकड़ थी दूनी, बड़ी बातूनी,
माँ कहें लड़ोकी, कभी लड़ाका, न बैठ किसी से पटरी मेरी।
यादों की गाँठों को खोलते, याद बहुत तुम आए पापा,
नहीं सबर हुआ बरस में, भीतर रो-रोके कट री मेरी।
– डॉ. आरती ‘लोकेश’
-दुबई, यू.ए.ई.