यादें बचपन की
हां, हो गई हूं बड़ी।,
पर दिल है अब भी बचपन सा,
ना सुर ना कोई साज है पर सुन लेता है सरगम सा।
अब भी मचल जाती हूं छत पर चढ़ चांद छु जाने को,
नंगें पांव सड़कों पर दौडूं और भर लूं बाहों में आसमां को।
कभी-कभी लगता है कि भींगती रहूं बारीश की बुंदों में,
कागज़ की नाव बनाकर खेला करुं बेफिक्र अरमानों में।
बनके नन्हीं सी गुड़िया छुप जाऊं मां के आंचल में,
झुठी मुठी डांट सुनूं और देर तक पड़ी रहूं बिछौने में।
सखीयों संग खेला करुं मिट्टी के गुड्डे और गुड़िया,
देख तमाशे कहती अम्मा हो तुम सब नमक की पुड़िया।
रात को थककर भुखी हीं सो जाऊं बाबा की गोद में,
नींद भगाने की खातिर जो बाबा मिर्च खिलाते रोटी की ओट में।
हर सपना जो अपना था ग़म का कहीं निशां ना था,
जमीं के सारे खिलौने मेरे थे बंद मुट्ठी में आसमां भी था।