” यह हमारे गाँव हैं ” !!
हरी भरी धरती है ,
और घनेरी छाँव है !
यह हमारे गाँव हैं !!
गहरे कुँए , बहती नदिया ,
है पोखर में पानी !
यहाँ नहीं स्वीमिंग पूल होते ,
बच्चों की मनमानी !
दूजे , तीजे , चौथे , अंतिम ,
कूद रहा है बचपन !
अल्हड़पन ऐसे ही पलता ,
निडर यहाँ लड़कपन !
सूरज ने छाया कर दी है –
धूप के उखड़े पाँव हैं !!
पकड़म पाटी और कबड्डी ,
खो खो खेल निराला !
अपकी थपकी पेड़ पर चढ़ना ,
यह कुलाम डाला !
गली गली है आंख मिचौली ,
और है गिल्ली डंडा !
धूम धड़ाका दिन भर भइये ,
निशा का मिज़ाज़ ठंडा !
चौपालों पर दुख बंट जाते –
अपनेपन की छांव है !!
कंचे खेलो,पतंग उड़ाओ ,
हो गए खेल पुराने !
अब क्रिकेट है खेत-खले में ,
हाथ लगे आजमाने !
है सुविधाओं ने पैर पसारे ,
गांव शहर से आगे !
रोज़गार के अवसर ना हैं ,
यही बुरा बस लागे !
कोलतार की सड़कें बिछ गई –
शहर को बढ़ते पांव है !!
पैदल चलना भूल गए हैं ,
साइकिल रास न आये !
धूम मचाई बाइक ने अब ,
हैं कारें धूल खाये !
निर्धन भी है, हैं अमीर भी ,
खाई बढ़ती जाए !
धरती माता उगले सोना ,
कुछ हाथ ही पाएं !
गलहार बने ,फांसी का फंदा –
अभी मिले ना ठाँव हैं !!
बृज व्यास