यथार्थ रूप भाग 3
मन को संकुचित कर,
अपनी आवश्यकताओं को
एक बीज की भाँती
ह्रदय में दबाकर
स्वार्थभाव से विहीन होते हुए,
प्रकाश के समरूप
एक उद्धृत स्वभाव
जब विपदाओं में घिरकर
प्रगति के अवसर ढूंढता है,
तो एक उम्मीद,
बदलाव की अपेक्षा में
आत्मा का ध्येय बन जाती है
जिसकी पहचान,
अस्तित्व के सरीखी होने लगती है।
शिवम राव मणि