यक्ष प्रश्न ( लघुकथा संग्रह)
समीक्ष्य कृति- यक्ष प्रश्न (लघुकथा संग्रह)
लेखक- अनिरुद्ध प्रसाद विमल
प्रकाशक- Best Book Buddies Technologies Pvt Ltd. New Delhi
प्रकाशन वर्ष-2019
मूल्य- ₹ 250/-
लघुकथा क्षण विशेष में उत्पन्न भाव ,विचार को कल्पना और रचनात्मकता के माध्यम से व्यक्त करने की एक ऐसी विधा है जो अपने पैनेपन के कारण पाठक के मनोमस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ती है।इस आधार पर यदि अंगिका और हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार श्री अनिरुद्ध प्रसाद विमल जी की लघुकथाओं का मूल्यांकन किया जाए तो वे बिल्कुल सटीक बैठती हैं।इस पुस्तक में कुल 52 लघुकथाओं को सम्मिलित किया गया है।सारी की सारी लघुकथाएं ग्रामीण परिवेश की सोंधी गंध लिए हुए हैं। इन लघुकथाओं में लेखक ने समस्या को इस तरह अभिव्यक्त किया है, जो हमें न केवल जानी- पहचानी सी लगती है वरन अंदर तक झकझोर देती है।
संग्रह की पहली लघुकथा ‘औरत’ है, जो मोनोलाॅग शैली में लिखी गई है।इसमें लेखक ने औरत की उस विवशता को चित्रित किया है जिससे प्रायः हर एक महिला दो-चार होती है।वह हर एक परिस्थिति का सामना करती है पर अपने आपको चाहकर भी छुटकारा इसलिए नहीं दिला पाती क्योंकि पत्नी के साथ-साथ वह एक माँ भी होती है।उसके बच्चों को किसी तरह की परेशानी न हो ,वह अपने ऊपर होने वाले हर एक जुल्म को सहन कर लेती है।
‘समझौता’ एक ऐसी लघुकथा है जिसमें एक व्यक्ति के परिस्थितिजन्य आदर्शों और सिद्धांतों के बदलाव को रेखांकित किया गया है। एक व्यक्ति जो पूरी निष्ठा और ईमानदारी से अपनी नौकरी करता है वह इसलिए घूसखोर हो जाता है ,क्योंकि उसकी तीन बेटियाँ हैं और बेटियों की शादी के लिए उसे दहेज की व्यवस्था करनी है।उसे पता है कि समाज ईमानदारी को नहीं अपितु धन -संपत्ति को महत्वपूर्ण मानता है।तनख्वाह से घर का खर्च तो चलाया जा सकता है पर बेटियों की शादी के लिए लाखों रुपए नहीं जोड़े जा सकते। लघुकथा का नायक सतीश जब कहता है-” घूस नहीं लूँ तो क्या बेटियों को, जिन्हें जन्म दिया है, उसे कोठे पर बैठा दूँ।”यह वाक्य पाठक को झकझोर देता है।
‘टेंगरा’ एक ऐसे बच्चे की कहानी है ,जो एक सेठ के यहाँ काम करता था, जब वह बीमार पड़ता है तो सेठ उसके इलाज की कोई व्यवस्था नहीं करता उल्टे उसे काम से हटा देता है। घर आने पर इलाज के अभाव में टेंगरा दम तोड़ देता है।यह हमारे देश के असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लाखों-करोड़ों लोगों की समस्या है।टेंगरा के पिताजी चचरी बनाते हुए कहते हैं- “अब उसे भूख नहीं सताएगी।अब उसे दवाई की जरूरत नहीं है।”एक पिता के द्वारा कहे गए ये शब्द भारतीय समाज के एक ऐसे सत्य को उद्घाटित करते हैं जिसकी तरफ अभी तक सरकारों का ध्यान नहीं गया है।एक पिता को इस बात का गम नहीं है कि उसका बेटा साथ-साथ के लिए उसका साथ छोड़ गया वरन इस बात की खुशी है कि मौत के कारण उसे भूख और रोग से मुक्ति मिल गई।
‘स्मृति दंश’ लघुकथा में लेखक ने समाज और प्रशासन का एक अमानवीय और वीभत्स रूप प्रस्तुत किया है। एक लड़की जिसे अपने प्रेमी द्वारा धोखा दिया जाता है, वह जब रक्षार्थ पुलिस के पास पहुँचती है तो उसे कोठे पर पहुँचा दिया जाता है। जब रक्षक ही भक्षक बन जाएँ तब मदद की गुहार किससे लगाई जाए? यह एक विचारणीय प्रश्न है।
‘व्यवस्था’ में लेखक ने एक ऐसे ईमानदार दारोगा की कहानी है जो व्यवस्था से तंग आकर सल्फास की गोलियां खाकर आत्महत्या कर लेता है।वह अपने अधिकारियों के दबाव को झेल नहीं पाता है, उनकी माँगें पूरी नहीं कर पाता है। सबको यही लगता है कि वह भी अन्य लोगों की तरह भ्रष्ट और बेईमान है।हर विभाग में सही और गलत दोनों प्रकार के लोग होते हैं। सभी को एक नज़र से देखना सदैव ग़लत होता है।
‘मीठी आवाज़ का दंश’ एक ऐसी लघुकथा है जो साइबर क्राइम से जुड़ी हुई है। आजकल बैंक के खातेदारों को ठगी करने वाले लोग अपना शिकार बनाते रहते हैं।इसमें पुरुष और महिला दोनों ही शामिल रहते हैं । कथा का नायक अनूप एक ऐसी ही धोखाधड़ी का शिकार हो जाता है। फसल बेचकर बेटी की शादी के लिए जमा किए गए सत्तर हज़ार रुपए गँवा देता है।
‘जेवर’ शिक्षा व्यवस्था पर एक करारा व्यंग्य है।जहाँ लोग बच्चों की मासिक फीस नहीं भर पाते ,वहाँ अगर प्रधानाचार्य परीक्षा की फीस पचास रुपये बढ़ाकर लेने लगे और कोई उसका विरोध भी नहीं करता।एक बच्चा जिसके पास फीस भरने के पैसे नहीं हैं, वह अपने बच्चे की परीक्षा फार्म की फीस भरने के लिए अपने जेवर गिरवी रख देती है।जब अध्यापक को यह बात पता लगती है तो वह उस बच्चे की मदद करते हुए उसे पैसे देते हैं और कहते हैं कि अपनी माँ के जेवर वापस ले आना।
इस संग्रह की समस्त लघुकथाएँ ऐसी हैं जो समाज,व्यवस्था और शासनतंत्र के समक्ष एक यक्ष-प्रश्न उपस्थित करती हैं।साहित्य सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना से ओत-प्रोत होता है।यदि उसमें सत्यं शिवं सुंदरम् का भाव नहीं है,तो उसे साहित्य नहीं कहा जा सकता।’यक्ष-प्रश्न’ की समस्त लघुकथाएं समाज को आइना दिखाने का प्रयास करती प्रतीत होती है।
लघुकथाओं के लिए यह आवश्यक होता है कि उनकी भाषा सहज,सरल हो।लेखक अनावश्यक रूप से अपनी विद्वता का प्रदर्शन न करे।भाषा की क्लिष्टता न केवल भाव- प्रवाह को बाधित करती है साथ ही आम पाठक से कथ्य को दूर ले जाती है। इस दृष्टि से जब हम यक्ष-प्रश्न की लघुकथाओं का मूल्यांकन करते हैं तो वे शत – प्रतिशत खरी उतरती हैं।वैसे तो साहित्य में आंचलिक शब्दों का प्रयोग साहित्य में सदैव से होता रहा है और होता भी रहेगा,क्योंकि आंचलिक शब्दों का अपना एक विशिष्ट अर्थ एवं सौंदर्य होता है परंतु कई बार आंचलिक शब्द भाव-बोध को बाधित भी करने लगते हैं। इस संग्रह में भी ‘अनचोके’ और ‘टौआना’ ,’बिचड़ा’ जैसे कुछ शब्दों का प्रयोग हुआ है,जिनके प्रयोग से अगर बचा जाता तो अच्छा होता।
इस लघुकथा संग्रह में कुछ वर्तनी संबंधी अशुद्धियाँ भी हैं जिन्हें दूर करने की आवश्यकता थी।कुछ अशुद्धियाँ तो प्रूफ रीडिंग का दोष हैं जैसे- नीजी,सुविधाऐं,वरदास्त, शाबशी,उपर, मुड आदि, परंतु कुछ अशुद्धियाँ स्थानीय प्रभाव के कारण आई प्रतीत होती हैं, जैसे- अब तो कोई काम बिना कमीशन का नहीं होता( पृष्ठ-22), कौन नहीं मरा है।सब मरेगा।( पृष्ठ-25), लाखों सरकार का जनहित में दिए राशि गटक कर सोना खरीद रहा है। ( पृष्ठ-31),मेहनत कुछ भी नहीं करना पड़ता संदीप को।( पृष्ठ-63) आदि।
अस्तु,समग्रता में देखने से स्पष्ट होता है कि विमल जी का लघुकथा संग्रह जीवनानुभवों को समेटे गाँव की उन समस्याओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है जिनका समाधान किया जाना अत्यंत आवश्यक है। निश्चित रूप से यह कृति पठनीय एवं संग्रहणीय है।कृति एवं कृतिकार को मेरी ओर से अशेष शुभकामनाएँ।
-डाॅ बिपिन पाण्डेय