यकीं के बाम पे …
यकीं के बाम पे …
हो जाता है
सब कुछ फ़ना
जब जिस्म
ख़ाक नशीं
हो जाता है
गलत है
मेरे नदीम
न मैं वहम हूँ
न तुम वहम हो
बावज़ूद
ज़िस्मानी हस्ती के
खाकनशीं होने पर भी
वज़ूद रूह का
क़ायनात के
ज़र्रे ज़र्रे में
ज़िंदा रहता है
ज़िंदगी तो
उन्स का नाम है
बे-जिस्म होने के बाद भी
रूहों में
इश्क का अलाव
फ़िज़ाओं की धड़कनों में
ज़िंदा रहता है
लम्हे मुहब्बत के
इतनी आसानी से
फ़ना नहीं होते
वस्ल के लम्हों में
कुछ भी दरमियाँ नहीं होता
तू और मैं का फ़र्क
मिट जाता है
शर्मों हया का हिज़ाब
हट जाता है
साये जिस्म बन जाते हैं
हकीकत को गुनगुनाते हैं
रूह से
जिस्म का मुलम्मा हट जाता है
हिज़्र का
डर नहीं होता
यकीं के बाम पे
बस इक पाक गौहर सी
ज़िंदगी होती है
आसमानों की
चादर ओढ़कर
मुहब्बत
चैन की नींद सोती है
सुशील सरना