मज़हबी मानव
हे ! मज़हबी मानव तेरे कितने रूप और रंग
हम समझ ना पाए तेरे जीवन जीने का ढंग ।
आतंक दंगे-फसाद धर्म की आड़ में आखिर अभी कितने,
न जाने इस आग की आंच में जलेंगे सपने कितने ।
पंथ, धर्म-कट्टरता व मज़हब की आड़ में हे ! मानव,
तू भला इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है दानव ।
तेरे हैं ये रूप अनेक,जिन्हें पहचान न सका कोई एक,
आखिर बता ? ?
मानवता को कब तक करेगा तू शर्मसार,
ना जाने कितने मनुज काल के मुंह में जाएंगे बेशुमार अफगानी जग में फैला है कैसा मंजर
जो अपने -अपनों के ही पीठ में घोंप रहे हैं खंजर..l
-अभिषेक मिश्रा (इ.वि.वि)