मज़दूर के लिए घर
_कविता _
मज़दूर के लिए घर
*अनिल शूर आज़ाद
यह
गगनचुम्बी इमारत
गलत है/कि
वसुंधरा की/छाती पर
बनी है
दरअसल यह
इसे/निर्मित करने वाले
मजबूर-मज़दूर/की
झुकती ही जा रही
कमर पर/ बनी है
ऐसी हर इमारत/ऐसे ही
आधारों पर/बना करती है
अनगिनत भूखे बच्चों के/खाली पेट
बूढ़े माता-पिता की/बिखरी उम्मीदों
और….पत्नी के/ रूखे ज़िस्म पर
ऐसी इमारतें/सदा से बनती आई हैं
किन्तु/ घोर विडम्बना/ यह है कि
इन इमारतों के/तथाकथित मालिक
नही जानते हैं कि/एक इमारत में
सीमेंट-बजरी-लोहा-लकड़ी ही नही
मज़दूरका पसीना भी/मिला होता है
अगर वे यह/ जानते होते तो
मज़दूरों के/फूंस के झोंपड़ों को
यूं बेदर्दी से/न तोड़ दिया जाता
मज़दूर के पास भी
तब अपना घर होता।
(रचनाकाल : वर्ष 1985)