मौसम का गीत
दिन का उजियारा मौन ठगा
दे रहा ठौर अंधियारे को
मुख देख ठण्ड का सुरसा सा
कट सूरज हुआ किनारे को ।
ऋतु की मर्यादा को रखने
आती जाती जब ‘विभावरी
तब सुबह शाम दोनो आती
सिर ढके कोहरे की चुनरी |
पता नहीं अबतक लग पाया
पीड़ा के आँसू ये ? अथवा
चंद्र निशा के अभिसार में
टूटी माला के ये मितवा |
सुबह ठण्ड से ठिठुरी किरणें
अंधकार की भीड़ भगातीं
जैसे तैसे धरती आती
उजियारे को ठौर दिलातीं |