मौलिकता की उपासना को
मौलिकता की उपासना को
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मौलिकता की उपासना को
निर्बंध रखो रचनाकारों,
कविताओं के उद्गम के भंडार खोलने वाला हूँ।
नैनों की किलकारी से
घायल हो जाने वाले
व्योम सुधा के वर्षण में
क्षणभंगुर हो जाते हैं;
व्यथित विहग के क्रंदन से
आहत हो जाने वाले
वन के कूँज कथानक से
अभिनंदित हो जाते हैं।
प्रेम समर्पण की परिभाषा
नयी बना लो दुनिया वालों,
विह्वल से इन गीतों में अनुराग रोपने वाला हूँ।
संस्तुति की आदि प्रथा पर
अधिकार जताने वाले
शब्द-शब्द दर वाणिज्यिक
साम्राज्य फैलाते हैं;
अज्ञानी के गागर सदृश
सागर से घबराकर वे
वाङ्मयों की धरती पर
दाग लगाते जाते हैं।
ग्रंथों के सिर पर चढ़कर अब
हुल्लड़बाजी को बंद करो,
शास्त्रार्थ महिमा महि को अविराम सौंपने वाला हूँ।
दह्य हृदय की नरमी से
सन्निधि कर जाने वाले
कुटिल दृष्टि की विनती से
कुंठित से हो जाते हैं;
मंत्रित कर निज मानस को
साकार विचरने वाले
छद्म दंभ की चालों के
आखेटक बन जाते हैं।
अंगारों के अहंकार को
मत उकसाओ खोद-खोदकर,
भस्मीकृत ज्वालाओं के आधार खोदने वाला हूँ।
…“निश्छल”