मौन
मौन, तुम क्यों इतने चुप हो
मौन, तुम क्यों इतने चुप हो
यातना के अभ्यस्त हो
पीड़ा से ग्रस्त हो, त्रस्त हो
मौन, तुम से आज तर्क करने चला हूँ मैं
सर्प के हर दंश को भस्म करने चला हूँ मैं
तुम चुप थे, जी रहे थे काल में
वो आश्वस्थ थे, फँसा रहे थे जाल में
काल के उस जाल को विध्वंस करने चला हूँ मैं
मौन, तुम से आज तर्क करने चला हूँ मैं
कौन कहता है,
मौन के दंश का सर्प ना होगा
कौन कहता है,
व्यथित की जिह्वा पर
उसका अंश ना होगा,
विष रिसती दीवारों को
स्वयं के रक्त से पोंछने चला हूँ मैं
मौन तुम्हारे प्रश्न का, उत्तर देने चला हूँ मैं
मौन, तुम से आज तर्क करने चला हूँ मैं
सूरज निगलने चला हूँ मैं
आकाश ढ़कने चला हूँ मैं
स्वर्ग से पाताल नापने चला हूँ मैं
पर्वत उठा, समुद्र बाँधने चला हूँ मैं
आज के चरखे पर
भविष्य तागने चला हूँ मैं
चीर धरती के वक्ष को
लहू रंगने चला हूँ मैं
वक़्त की क़लम पर
आज़ादी लिखने चला हूँ मैं
मौन, तुम से आज तर्क करने चला हूँ मैं
मौन, क्या तुम्हारी परिभाषा है
है चुप हर प्रहार से
है परतंत्र हर अत्याचार से
है झुकता रहा हर वार से
बँधा है बेड़ियों से, तार से
मौन तुमको स्वतंत्र करने चला हूँ मैं
बेड़ियाँ खोल अपनी
सत्य खोजने चला हूँ मैं
मौन, तुम से आज तर्क करने चला हूँ मैं
मौन, आज़ादी लिखने चला हूँ मैं।
@संदीप