मौन हूँ, अनभिज्ञ नही
मौन हूँ, अनभिज्ञ नही
पीड़ा, जगत विरह की
सहज व अदृश्य नही।१।
रचयिता इसका फिर भी
मौन है, अनभिज्ञ नही।२।
रचना ‘मानस’ प्रकृति की
श्रेष्ठ है, कुत्सित नही।३।
मानस सब जानकर भी
विभक्त है,संकुचित नही।४।
अपकार, उपकार मिश्रित सी
कीमत नही समय की।५।
निराशा, विरह, लालसा ही
किंचित है, सर्वज्ञ नही ।६।
चाहता कौन है, दुख मे जीना
सिखा देती है मज़बूरी।७।
मुफ्त में वो पाता नही
करता है, जो मज़दूरी।८।
कड़ी धूप में, काम करे वह
क्षण भर भी , स्वार्थ नही।९।
सब कुछ सह कर, निस्वार्थ पड़ा है,
आज अमर , अजय वही।१०।
उफ तक न करता यह
मौन है, अनभिज्ञ नही ।११।
सब कुछ जानकर भी
सहन कर रहा मानव यहीं ।१२।
कर्म प्रधान बना मेरा भारत
क्षमता इसमे सहने की।१३।
पीड़ा, जगत मानस की
दयनीय है, असहनीय नही ।१४।
रचयिता इस संसार का
मौन है, अनभिज्ञ नही ।१५।
#संजय कुमार “सन्जू”
शिमला, हिमाचल प्रदेश