मौन में गूंजते शब्द
शब्दों की कमी तो हमेशा रही, उनके व्यक्तित्त्व में,
पर भावनाओं की बारिश सदैव होती रही उस घर में।
कठोर आवरण तो ज़रूर था, उस वातावरण में,
परंतु करवाहट ना पनपने पाईं, किसी के मन में।
परीक्षाओं की कसौटियाँ तो खड़ी की गई, हर पल में,
परंतु आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की शिक्षा भी मिली उस भागीरथ में।
अपने सपने तो हमेशा देखते थे, वो हमारे नयन में,
परंतु विश्वास की ड़ोर कभी टूटने ना दी हमारे चयन में।
जब भी स्वयं को घिरा पाया, मुश्किलों के दामन में,
तब तब उनको पाया, हमारे प्रबल समर्थन में।
अब आ चुके वो, उम्र के उस पहर में,
की पथराई आँखें हीं बस दिखती हैं, हर मौसम में।
जब भी सहारे को देते अपने हाथ, उनके हस्त कमल में,
शब्दों का प्रवाह महसूस होता है, उनके मौन के माध्यम में।
कभी कभी ऐसा भी सुनाई देता है, खामोशी की उस जंग में,
अगले जन्म में भी मैं बनूँगा तेरा पिता, विश्वास रख तू ऐसा अपने मन में।
-मनीषा मंजरी
-दरभंगा (बिहार)