मौज के मुक्तक
“मौज के मुक्तक”
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१
ये मेरे देश की धरती अमन के गीत गाती है।
खार की आंधियों में भी हवाएं मुस्कुराती है।
दिया संदेश एक घर का जगत को आज भी हमने
हमारी सांस की सरगम वफा को गुनगुनाती है ।।
२
तिरंगे की सलामी में गगन को भी झुका देंगे।
जमीं के कर्ज की खातिर जिंदगी को चुका देंगे।
हमारे खून का कण-कण देश के नाम करते हैं
अरे दुश्मन!! तेरी सांसें गले में ही रुका देंगे।।
३
हिमालय शान भारत की मुकुट ये खो नहीं सकता।
तू चाहे पाक हो या चीन हमारा हो नहीं सकता।
हमारे शेरों के पंजे कुचलकर कीमा कर देंगे
कुटिल जिसकेे इरादे हों चैन से सो नहीं सकता।।
४
अजब दस्तूर जमाने का निभाना नहीं आया
झूठ को सच, सही को गलत दिखाना नहीं आया।
मैं जैसा देखती, कहती, वही करती चली आई
फासला झूठ और सच का मिटाना नहीं आया।।
५
रोज देखती हूं मतलब में रंग बदलते जमाने को
मन करता है लोगों के सोए जमीर जगाने को।
मगर हार जाती हूं हर बार फरेबी बातों से तेरी
“मौज” है चिराग मेरे इरादों का तुझे जलाने को।।
६
बहुत सोचा मगर कोई उत्तर नहीं आया
मुझे ये चालबाजी का हुनर नहीं भाया।
लोग कहकर बदलते हैं देखिए आप भी रब्बा
“मौज” मन में बुरा कोई ख्याल नहीं आया।।
७
कहां छुपती है रोटी तू !! तुझे मैं ढूंढ ही लूंगा,
मैं पिचके पेट को भरने,स्वेद के बूंद पी लूंगा,
गरीबी जब डराती है , जरुरत जोश भरती है
रोज टुकड़े चबाता हूं,आज रोटी में घी लूंगा !!!!
८
मैं हर दिन तोड़ता पत्थर,कमर भी टूटती जाती
किसी दिन मैं भी जीऊंगा,आस ये छूटती जाती
सुना है कर्म से मजदूर की तकदीर बनती है
मगर ये कर्म की चक्की , जिंदगी लूटती जाती!!!
९
गरीबी सर उठाती है , जवानी लड़खड़ाती है
चिरैया जाल में उलझी,परों को फड़फड़ाती है
फावड़ा और तगारी ले, रात-दिन एक कर देता
सांझ को ठर्रा पीकर ही तबीयत धड़धड़ाती है!!!!
१०
जमाने का मुझे क्या डर,कर्म के बीज बोता हूं
सुबह से शाम होता काम,चैन की नींद सोता हूं
मुझे रोटी की ख्वाहिश है, नहीं अरमान महलों के
महज रोटी जुटाने में ये जीवन-जान खोता हूं।।।
११
नहीं सपना मेरा कोई, नहीं अरमान बाकी है
महज रोटी जुटाने को,चली जीवन की चाकी है
गरीबी घट नहीं पायी, बढ़ी बेगार महफ़िल में
खरी मेहनत छलकता जाम, फावड़ा मेरा साकी है।।
१२
न गीता पाक लड़ती है,न ही कुरान लड़ती है ।
आदमी जात ऐसी है सरे बाजार लड़ती है।।
मतलबी आंधियां चलती,बरसती आग आंखों से
बढ़ी नफरत की खाईयां मौहब्बत बस तड़पती है।।
१३
भला हो आदमी तेरा तूने दानवों को लजाया है।
अपनी भूख की खातिर किसी का घर जलाया है।।
पिपासा खूब है तेरी तू अपनों को निगल जाए
चंद कागज के टुकड़ों को बड़ा चक्कर चलाया है।।
१४
तिजोरी भर नहीं सकती तूने ईमान खोया है।
तुझे सच दिख नहीं सकता तेरा जमीर सोया है।।
करेगा पाप कितने अब कहां मंज़िल रही तेरी
जो हंसा औरों को दुख देकर अकेला बैठ रोया है।।
१५
सुनो लालच के सब पुतलों ये जीवन फिर न आएगा।
मिला जो नेक कर्मों से गुनाहगारी में जाएगा।
खुदाया माफ कर देगा , माफी मांग कर देखो
“मौज” ये पाप का कीड़ा कई जन्मों को खाएगा।।
विमला महरिया “मौज”