अब मोह बढ़ने लगा है।
कुछ रिश्तों के साथ ये मन,
कुछ ज़्यादा ही जुड़ने लगा है,
थोड़ा संभल जा ऐ दिल,
कि अब मोह बढ़ने लगा है,
लगाव-जुड़ाव का ये बंधन,
अब सिर पे चढ़ने लगा है,
थोड़ा संभल जा ऐ दिल,
कि अब मोह बढ़ने लगा है,
प्रेम और स्नेह के इस जाल में,
अब विवेक भी जकड़ने लगा है,
थोड़ा संभल जा ऐ दिल,
कि अब मोह बढ़ने लगा है,
एक समय था जब बेअसर थी ये बातें,
कि कौन मिला और बिछड़ने लगा है,
थोड़ा संभल जा ऐ दिल,
कि अब मोह बढ़ने लगा है,
अछूता था हर मोह-माया से अब तक,
फिर क्यों इनमें तू पड़ने लगा है,
थोड़ा संभल जा ऐ दिल,
कि अब मोह बढ़ने लगा है,
पास भी ना होंगे तेरी उदासी में ये,
आज जिनके लिए तू पिघलने लगा है,
थोड़ा संभल जा ऐ दिल,
कि अब मोह बढ़ने लगा है,
भावनाओं का ये सागर “अंबर”,
कैसे तुझमें उमड़ने लगा है,
थोड़ा संभल जा ऐ दिल,
कि अब मोह बढ़ने लगा है।
कवि-अंबर श्रीवास्तव।