मोहे वृंदावन न भायै, …..(ऊधो प्रसंग)
विरह ,व्यथित , व्याकुल,अंतर्मन उधो….मोको अति सतावत,…
बन मृगया इत ऊत डोलै मन, बिनु गिरधारी मोहे वृंदावन न भायै,
चंचल चितवन रिझावत अति निको लागै ..
ज्यों बरसे नैन नीर.. घनश्याम न पसीजो …
घनघोर “घन”श्याम नीर बरसायो….
अब काय कु सुध लेत नही ,..लाला.. जे ..यमुना, गोप ग्वाल, गौ क्यूं बिसरायो….
तम घिरै जीवन गोधूली में… क्यूं अब तलक राह निहारो..राग दिखै न ,रागिनी ,
न खग कलरव गूं जै , कैसो तुम्हे पतियावै,राह तकौ कुंजकलिन मै, नैन बिनु नींद नित नैनं रात बितावै …वृषभानुजा,वंशी कौऊ टेर सुनाएं…
अकेल्यो चमकै चंदा.. देख्यो किस विधआस लगाऐ…..
बिरहन की गति बिरहन समझै ,गोपियन ऊधो देऊ खीझावै
, जे प्रीत पृथक,प्राविना प्रगाध ,पृथा प्रण प्राण प्रिया जू पल पल प्रकल्प सो लागै …
अब धीर धरो न सकूंहूं माधव “अश्रु” दियो बताये।।
✍🏻 अंजूपांडेय “अश्रु”