मोहब्बत की तुमसे रवानी चली है
मोहब्बत की तुमसे रवानी चली है
अब जाके मिरि जिंदगानी चली है
मसला हमसफ़र का हो या मंज़िल का
बात वही फिर से पुरानी चली है
लाई कहाँ से हौसले समेटकर
कज़ा से उलझने आसानी चली है
तुम्हारे शहर की गलियों से तुम तक
मेरी भी अब तो कहानी चली है
ये किसके दिल-ए-गुलशन से महककर
हवाओं की मेहरबानी चली है
दीये आज लेकर आसमानों में
उठके तारों की जवानी चली है
काग़ज़ की ज़मीं पर लफ्ज़ उतारने
हाँ ‘सरु’ की कलम दीवानी चली है