“मोक्ष के द्वार जाना हैं… “
मोक्ष के द्वार जाना हैं……| ©
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पहले मैं आ गया यहाँ, खुदा के घर….तो क्या ?
एक दिन तुमको भी तो यहीं आना है |
अपना यही तो आखिरी ठिकाना है |
एक दिन सबको भगवान के घर जाना है |
बारी-बारी सबको बुलावा मिल जाना है |
एक-एक करके सबको बिछड़ ही जाना है |
एक दिन अचानक अलविदा कह जाना है |
क्यूँ किसी को झूठा लम्बा सपना दिखाना है ?
मुस्कुरा के बस यूँ ही एक दिन चले जाना है |
तो क्यूँ हो चिंतित,क्यूँ मचाये हो होड़ा-होड़ी ?
क्यूँ करते हो दिनरात एकदूजे से माथा-फोड़ी ?
क्या खोना है यहाँ और क्या पाना है ?
क्यूँ किसी से गिला शिकवा करना है ?
क्यूँ रूप सौन्दर्य पर इतराना है ?
और क्यूँ कुरूपता से निराश होना है ?
इस जवानी को तो दिन-दिन ढलते ही जाना हैं |
ये हाड- मांस सब यहीं दफ़न हो जाना है |
एक दिन सब राख़ बन जाना है |
यहीं इस खाक में सबको मिल जाना है |
अरे भाई, क्यूँ बैठे हो पोटली बाँध के….?
साथ कुछ भी तो नहीं जाना है |
सारा हिसाब-किताब चुकता करके जाना है |
इस धरती से ही लिया था सब उधार,
इसी को वापिस लौटा के जाना है |
यहीं सब बाटोरा था, यहीं सब लुटा के जाना है |
ये दौलत,ये शौहरत,ये प्यार,ये नफरत,और ये शरीर |
आये थे किकारियां मारते, मुस्कुराते हुए जाना हैं |
पनपे थे कोख में और चिता पे सिमट जाना है |
इसमें क्या नया पुराना है ?
जानता ये सारा जमाना है |
ये दुनिया एक फ़साना है |
इसको अफसाना समझ के निभाना है |
मां की गोद से धरती मां की गोद का, ये सफरनामा है |
एक दिन इसी में कहीं खो जाना है |
कण – कण में समा जाना है |
कहीं तारा बन के टिमटिमाना है |
या कहीं फूल बन के खिल जाना है |
पंचतत्व में विलीन हो जाना है |
आकाश,जल,अग्नि,मिट्टी,वायु में,तब्दील हो जाना है |
आत्मा से परमात्मा में समा जाना है |
उस परमात्मा में ही कहीं खो जाना हैं |
ये जिंदगी तो सुख-दुख से भरा एक सफरनामा हैं,
अंततः हमें तो मोक्ष की मंज़िल को पाना हैं |
भटक रहे है हम यहाँ दर -दर,
कभी हैं हालत बेहतर तो कभी बदतर |
कभी दुखों की ठोंकर खाते हैं,
तो कभी सुखों से थोड़ा संभलते हैं |
हमें इस भंवर से छुटकारा पाना हैं…..
अस्थिर हैं हम सब यहाँ, स्थिरता को पाना हैं |
मौक्ष के द्वार जाना है..…..मोक्ष के द्वार जाना हैं……|
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स्वरचित एवं
मौलिक रचना
लेखिका :-
©✍️सुजाता कुमारी सैनी “मिटाँवा”
लिखने की तिथि :- 7 जून 2021