“ मै “
अपनों के लिये
मरती – करती – सहती
लेकिन कुछ नहीं “ मैं “
कहीं नहीं “ मैं “
मरती हुई अच्छी “ मैं “
करती हुई अच्छी “ मैं “
सहती हुई अच्छी “ मैं “
लेकिन आवाज़ उठाती
सबसे बुरी “ मैं “
अपने इस “ मैं “ को
कैसे देखूँ ?
सवाल बहुत जटिल
हल करना कठिन
अपने इस “ मैं “ से लड़ना कठिन
अपने इस “ मैं “ को समझाना कठिन
कि क्या हूँ “ मैं “
कहाँ हूँ “ मैं “
हूँ भी नही की नहीं हूँ “ मैं “
अगर हूँ तो कितनी हूँ “ मैं “
आधी हूँ या पूरी हूँ “ मैं “
अच्छी हूँ या बुरी हूँ “ मैं “
सही हूँ या गलत हूँ “ मैं “
रोज़ – ब – रोज़
इस “ मैं “ से लड़ती “ मैं “
पल – पल हर पल
घुट – घुट कर मरती “ मैं “ !!
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 13 – 09 – 2012 )