मै श्मशान घाट की अग्नि हूँ ,
मै श्मशान घाट की अग्नि हूँ ,
मैं हरिश्चंद्र का सन्नाटा l
और मणिकर्णिका का ताप हूँ l
मैं श्मशान घाट की अग्नि हूँ ll1ll
मैं श्मशान की अग्नि हूँ
युगो युगो से मेरी लपटों में ,
शरीर को जलते देखा है l
पास खड़े उसके परिजन को,
दुखी भी होते देखा है ll2ll
हर एक के जीवन के अंतिम पड़ाव का ,
बस मैं ही बनती साक्षी हूँ l
क्या कहूं मैं कितनी चिंतित हूँ ,
मैं श्मशान की अग्नि हूँ ll3ll
जो लेके आते कांधे पर,
वो राम राम तो रटते हैं l
अपने प्रियजन का दाह तो करते ,
पर खुद को अमर समझते हैं ll4ll
महल खजाना नाम और शोहरत,
सब मुजमे आकर राख हुए l
फिर भी जीव बड़ा गद गद है,
अपनी मान प्रतिष्ठा पर ll5ll
लड़ता रहता है जीवन भर,
ये तेरा घर ये मेरा घर l
ईष्र्या,क्रोध,लोभ,अहँकार अग्नि में ,
तिल तिल जलता है जीवन भर ll6ll
जो भी उसको छोड़ के जाना
उस पर दाव लगाए बैठा है l
मुठी भर राख में शरीर बदलता
जिसका मान बढ़ाये बैठा है ll7ll
कन्धा देने तक बस रिश्ता ,
उसके बाद सब व्यापारी बन जाते हैं l
जिसका जीवन राख हुआ,
उसके धन घर पर आँख गड़ाए रखते हैं ll8ll
वह मानव तो बस पशु तुल्य है,
जो केवल पेट भरण में लिप्त रहा l
जीवन भर कितने लक्ष्यों को था साधा,
पर असल लक्ष्य से दूर रहा ll9ll
उगते सूरज और ढलते सूरज के साथ,
जीवन के एक एक दिन कम हो जाते हैं l
किन्तु जन्म मृत्यु का प्रश्न कभी
क्या मानव के मन में उठते हैं ll10ll
अपने आगे आते देखा ,
न जाने कितने जीवन को जाते देखा l
फिर भी राम नाम का धन छोड़कर,
सब कुछ संचय करते देखा ll11ll
देख के दुःख मुझको होता है,
जब जब चिता में कोई भस्म हुआ l
हे राम कहु अब क्या इनसे,
ये इनका मानव जीवन व्यर्थ हुआ ll12ll