मैथिल मुसलमान नहीं सीख पाये बंगाल के मुसलमान से मातृभाषा प्रेम
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उर्दू के बाद भारत में मैथिली ही दूसरी ऐसी भाषा है जिसमें मर्सिया लिखा गया। ग्रियर्सन के अनुसार 19वीं सदी तक मुस्लिम समुदाय मैथिली में मर्सिया गाते थे। आजादी के साथ उनपर भी धर्म के नाम पर उर्दू थोप दिया गया, वहीं संस्कृत को ब्राहमणों की भाषा बना दिया गया। 20वीं शताब्दी तक मिथिला के हिंदू भी उर्दू लिखना-पढना जानते थे, लेकिन भाषा के धर्म से जुड जाने के बाद यह रिश्ता टूट गया। एक ओर जहां क्षेत्र की भाषाई पहचान मिट गयी, वही भाषा की सर्वस्वीकारोक्ति भी खत्म हो गयी। अरब के सैनिकों के लिए इजात की गयी भाषा भारतीय मुसलमानों की भाषा हो गयी। भारतीय मुसलमान इसलिए क्योंकि बांग्लादेश के मुसलमानों ने उर्दू को मातृभाषा या अपनी भाषा मानने से इनकार कर दिया। उर्दू की खिलाफत के कारण मुस्लिमों की जान चली गयी। पूरा विश्व उस दिन को मातृभाषा दिवस के रूप में मनाता हैं। निश्चित रूप से बिहार सौ साल पहले बंगाल का अंग रहा है। हम भाषा को धर्म और जाति में डाल कर उसका दायरा सिमटा रहे हैं। भाषा को बेमौत मार रहे हैं। पता नहीं कौन सा मर्सिया गा रहे हैं। अगर बंगाल के मुसलमान की तरह मैथिल मुसलमान अपनी मातृभाषा से प्रेम करते तो आज मैथिली की यह दुर्गति नहीं होती. मैथिल मुसलमानों ने उर्दू के लिए अपनी मातृभाषा को वैसे ही छोड़ दिया, जैसे हिंदी के लिए हिंदूओं ने अपनी मातृभाषा छोड़ दी.
साभार-कुंदन जी