मैथिली का प्रभाव असम बंगाल और उड़ीसा विद्यापति और ब्रजबुलि
विद्यापति आज प्रायः छह सौ वर्षों से, बिना किसी बाहरी अवलम्ब के जीते चले जा रहे हैं, जिस तरह कुछ अन्य कवि भी जीते आए हैं। किन्तु उनकी जो मधुरता उनके लिए अमृत का काम करती रही है, उसी ने उनकी पदावलियों को एक ऐसे जाल में उलझा रखा है जहाँ से पूर्ण शुद्धता के साथ उन्हें निकाल देना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। यह जाल है उन असंख्य अनुकर्ताओं का जो उनके बाद और उनके समय में भी, केवल मिथिला में ही नहीं, बल्कि बंगाल, उड़ीसा और आसाम में भी उत्पन्न हुए तथा जिनके पदों की भीड़ में से विद्यापति के पदों को सही-सही ढूँढ़ निकालना बड़ा ही कठिन हो रहा है।
एक तरह से यह जाल ब्रजबुलि नामक उस मोहिनी भाषा का जाल है जो कहते हैं आकस्मिक रूप से जन्म लेकर समस्त पूर्वी भारत में फैल गई और जिसमें रचे हुए पद, बहुधा, विद्यापति विरचिंत होने का भ्रम उत्पन्न करने लगे। यहाँ विलगाव की प्रक्रिया में विद्वानों का पथ-प्रदर्शन केवल ‘भणिताएँ’ करती हैं, किन्तु जहाँ ‘भणिता’ नहीं मिलती, वहाँ अकसर कठिनाई उत्पन्न हो जाती है तथा ‘भणिता’ मिलने पर भी कभी-कभी यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि इस पद का वास्तविक रचयिता कौन है। ऐसा भी होता है कि एक-एक कविता में दो-दो, तीन-तीन भणिताएँ मिल जाती हैं और तब सम्पादक को अपने-आप पर भरोसा रखकर कोई निर्णय दे देने के सिवा दूसरा उपाय नहीं सूझता। विद्यापति की पदावलियों के सम्बन्ध में अभी तक सबसे अधिक काम बंगला में स्वर्गीय नगेन्द्रनाथ गुप्त का ही समझा जाता है। किन्तु उनका संग्रह भी ऐसे दोषों से मुक्त नहीं है।’
मिथिला में विद्यापति के जो पद मिलते हैं उनमें भी विकृतियाँ है, फिर भी मिथिला में पाई जानेवाली पांडुलिपियों पर अधिक भरोसा किया जाना चाहिए, यदि
उदाहरण प्रस्तुत है —-
( 1. नगेन्द्रनाथ गुप्त के संग्रह के पद सं. 81, 86, 210, 538, 596, 624, 665, 669 और 703 में गोविन्ददास का नाम विद्यापति के साथ आया है। एक उदाहरण है:
भनई विद्यापति गोविन्ददास तथि पूरल इस रस ओर।
गुप्त जी ने अर्थ किया है कि इस रस सीमा की पूर्ति गोविन्ददास ने की।
– विद्यापति, द्वितीय संस्करण, सम्पादक अमूल्य चरण और खगेन्द्रनाथ )
वे काफी प्राचीन हों। स्वर्गीय पं. शिवनन्दन ठाकुर ने (जिनकी कृति का हमने अभी तक वह सम्मान नहीं किया है जिसकी वह अधिकारिणी है) तो रामभद्रपुर वाली पांडुलिपि के आधार पर जिन नए 85 पदों का सम्पादन किया था, उन्हीं की भाषा और प्रयोग को वे विद्यापति पदावली पर काम करनेवाले विद्वानों के लिए मॉडल या आदर्श बता गए हैं। किन्तु कठिनाई यह है कि पदावली की अधिकांश सामग्रियाँ बंगाल से आई हैं और वहाँ उनमें से अधिकांश ब्रजबुलि साहित्य के दूहों के बीच से ही खींच-खाँचकर निकाली गई हैं। अतएव, उन पर बंगला’ का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। जिसे मैं अपनी मातृभाषा होने के कारण अनुभव कर सकता हूँ!
ग्रियर्सन, सुकुमार सेन,’ नगेन्द्रनाथ गुप्त, यहाँ तक कि सुनीति बाबू’ का भी यही खयाल है कि ब्रजबुलि के जन्म का कारण मिथिला में पठनार्थ जानेवाले बंगाली छात्रों, बंगाल के अक्षम लिपिकारों एवं ततोऽधिक अशिक्षित कीर्तनगायकों का मैथिली भाषा का अज्ञान अथवा अधूरा ज्ञान था। पठानों की बंगाल-विजय के बाद जब मिथिला (और उड़ीसा भी) हिन्दुत्व की एकमात्र पीठ रह गई तब बंगाली छात्र संस्कृत पढ़ने को मिथिला आने लगे। उन्हीं के द्वारा विद्यापति के पद बंगाल पहुँचे, जहाँ बंगाली लिपिकारों ने उन्हें लिपिबद्ध किया और बंगाली कीर्तन-नायक उन्हें गाने लगे। किन्तु ये लोग मैथिली के सक्षम ज्ञाता नहीं होते थे। अतः पदों की भाषा उनके हाथों में विकृत होने लगी तथा उस पर धीरे-धीरे बंगला का रंग चढ़ने लगा जिसका प्रभाव वर्तमान बंगाली भाषा पर आज भी प्रासंगिक विशेष बना हुआ है बंगाली और मैथिली की !
। कहते हैं, अन्त में इन्हीं विकृतियों से एक नई भाषा निकल पड़ी, जो वैष्णव पदों की भाषा हो गई और वैष्णव धर्म के प्रसार के साथ जिसका प्रचार उड़ीसा और आसाम में भी हो गया। यह भी कहा जाता है कि विद्यापति के पदों के प्रचार की सीमा उड़ीसा में ही समाप्त नहीं हुई थी, प्रत्युत् उसका प्रसार दक्षिण में भी था। ब्रजबुलि के जन्म की कल्पना करते हुए श्री नगेन्द्रनाथ गुप्त ने लिखा है, “बंगाली व्रज भावे विभोर हइया, एइ कवितार भाषा की राधाकृष्णेर लीलाभूमि मथुरा वा ब्रजेर भाषा बलिया लइया ब्रजबुलि नाम दियाछे… बांगलीर अस्थिमज्जाय विद्यापति प्रवेश करिलो। विद्यापति गान गाहिते गाहिते, क्रमशः, बांगलीर निकट बहुपद बांगलार रूप धारण करिलो।”” इस भाषा का ब्रजबुलि नाम क्यों पड़ा, इसके कई कारण हो सकते हैं। सम्भव
1. “ये नगेन्द्र बाबू… तिनि उ पाठविकृतिरजन्य कम दाई न हेन। बंगदेशे प्राप्त पदावलीर काल्पनिक मैथिल रूप दिते गिया तिनि। ये सकल मूल करियाछेन, ताहरा संख्याउ अल्प नहे।”
– श्री खगेन्द्रनाव मित्र विद्यापति की भूमिका
2. Maithili chrestomathy, पृ. 39। 3. History of Brajabuli literature
4. Introduction to the History of Maithili Literature by Dr. J.K. Mishra
5. विद्यापतिर गीतिकविता दाक्षिणात्य देशेर हृदयेउ प्रतिध्वनि तूलिया छिलो।
6. विद्यापति ठाकुरेर जीवन वृत्तान्त।
खगेन्द्रनाथ मित्र: विद्यापति की भूमिका
है, पदावली के नायक श्री कृष्ण की जन्मभूमि के नाम पर इस भाषा का नाम ब्रजबुलि पड़ा हो; सम्भव है, बंगाल से पश्चिम जिस भाषा में कृष्ण-काव्य की रचना हो रही थी, उसके साम्य पर ही बंगाल में लोगों को यह नाम सूझ गया हो अथवा यह भी सम्भव है कि विद्यापति के अनुकरण पर बननेवाले पदों की भाषा को मैथिली और बंगला, दोनों से ईषत भिन्न पाकर लोगों ने उसका ब्रजबुलि नाम दे डाला हो। किन्तु विचारणीय विषय यह है कि ब्रजबुलि का जन्म, सचमुच ही, बंगाली लिपिकारों और कीर्तनकारों एवं कीर्तनगायकों के प्रमाद से हुआ अथवा वह उस भाषा का प्रतिबिम्ब थी जो एक महाकवि की कल्पना की गर्मी से पिघलकर अत्यन्त तरल और कोमल हो उठी थी। ब्रजबुलि कविता के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है और उसमें जिसने भी लिखा वह कम-से-कम हास्यास्पद तो नहीं ही हुआ। अपनी मधुरता के कारण ही वह बंगाल, उड़ीसा और आसाम, तीनों प्रान्तों में समादृत हुई तथा नवयुग के बाद भी कवियों का ध्यान उसकी ओर गया एवं 19वीं सदी में जनमेजय मित्र, बंकिम चन्द्र, राजकृष्ण राय और स्वयं रवीन्द्रनाथ उस भाषा में रचना करने का लोभ संवरण न कर सके। ब्रजबुलि ने रवीन्द्रनाथ की तो कविता की आँख ही खोली क्योंकि उनके’ आरम्भिक गान उसी भाषा में लिखे गए हैं। एक ओर ब्रजबुलि की मधुरता का यह हाल है तो दूसरी ओर वह बड़ी ही सरल भाषा भी रही और ब्रजबुलि के भीतर से ही सारे पूर्वी भारत में वैष्णव धर्म का प्रचार हुआ। क्या इतनी सरल, मधुर और सबके हृदय को झंकृत करनेवाली भाषा प्रमाद से उत्पन्न हो सकती थी?
इस सम्बन्ध में कई प्रश्न उठाए जा सकते हैं। सबसे पहले तो विद्यापति की भाषा से ब्रजबुलि भाषा का पूरा साम्य है और ऐसा लगता है कि अनुकरण करनेवालों को बहुत बिगाड़ना नहीं पड़ा है। नीचे के उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाएगी:
पहिलहि राग नयन भंग भेल,
अनु दिन बाढ़ल अवधि न गेल,
ना सो रमन, ना हम रमनी,
दुहुं मन मनोभव पेसल जनी।
– रामानन्द राय, उड़ीसा, 1504-1532
से कान्ह, से हम, से पंचबान,
पाछिल छाड़ि रग आवे आन,
1. ठाकुर भानुसिंहेर पदावली। रवीन्द्रनाथ ने My Reminiscences में भी लिखा है, “Rejoicing in the graceful shade of the cloudy mid-day rest-house, I lay prone on the bed
in my inner room, I wrote on a slate the imitation Maithili poem.” “Vidyapati’s poems and songs were one of the earliest delights that stirred my youthful imagination.”
(नगेन्द्रनाथ दास को पत्र में लिखा )
पाछिला पेमक की कहब साध,
आगिलाह पेम देखिअ अब आध।
—- विद्यापति
इन दोनों पदों की भाषा एक-सी है और ऐसी ही समता हम ब्रजबुलि के अधिकांश कवियों एवं विद्यापति तथा गोविन्ददास के बीच पाते हैं।
दूसरी बात यह है कि डॉक्टर सुभद्र झा ने ब्रजबुलि साहित्य की जो चार श्रेणियाँ’ बनाई हैं, उनमें से एक श्रेणी में उन्होंने उन पदों को रखा है जिनमें बंगला और ब्रजभाषा का रूप मिश्रित मिलता है। यह कैसे हुआ? क्या इसकी प्रेरणा के बीज भी विद्यापति की भाषा में निहित थे, अथवा यह कृष्णभक्त हिन्दी कवियों का प्रभाव है? कहा जाता है कि विद्यापति की अवहट्ट पर शौरसेनी का भी कुछ प्रभाव है। तो क्या यह प्रभाव उनकी मैथिली में भी यदा-कदा उतर पड़ता था? खोजने पर, शायद, थोड़े-बहुत प्रमाण मिल जाएँगे; किन्तु उसके पूर्व तो यह निश्चित करना है कि पदावली की भाषा के किस रूप को हम शुद्ध मानें।
एक तीसरी बात यह भी है कि उड़ीसा में तो ब्रजबुलि का प्रवेश चैतन्य महाप्रभु के साथ हुआ; किन्तु डॉक्टर जयकान्त मिश्र का कहना है कि आसाम में ब्रजबुलि का प्रवेश कामरूप और विदेह के लोगों के समागम के परिणामस्वरूप हुआ था। उनका यह भी कहना है कि आसाम के विख्यात सुधारक शंकरदेव (1449-1568) तीर्थाटन के क्रम में बिहार आए थे और यहीं उन्हें विद्यापति के पदों से परिचय हुआ तथा उन्हें यह भी भासित हुआ कि इन पदों की भाषा में वैष्णव धर्म का प्रचार आसानी से किया जा सकता है। यह स्थापना, कदाचित्, ठीक होगी क्योंकि बंगाल से वैष्णव धर्म का वहन करती हुई अगर ब्रजबुलि आसाम गई होती तो उसके साथ बंगाल में प्रचलित सख्य या पति-पत्नी भाववाली भक्ति भी आसाम पहुँचती। किन्तु आसाम के वैष्णवों में दास्य-भाव की ही प्रधानता रही। इसके सिवा, आसाम के ब्रजबुलि के पदों में राधा का भी नाम नहीं है। यहाँ एक दूसरी शंका उठ खड़ी होती है कि तब यह विद्यापति के प्रभाव का द्योतक कैसे कहा जा सकता है, क्योंकि विद्यापति की कविता में तो राधा का उल्लेख है? सम्भव है, राधा-तत्त्व के विवर्जन का कारण दास्य-भाव की प्रधानता रही हो। जो हो, विद्यापति की भाषा आसाम भी पहुँची और वहाँ भी उसने अपने लिए अनेक अनुकर्त्ता उत्पन्न कर लिए। अगर ब्रजबुलि के बंगाल होकर आसाम पहुँचने की बात ठीक नहीं है, तब यह सम्भावना और भी बढ़ जाती है कि ब्रजबुलि विद्यापति की ही भाषा का परदेशगत नाम है। विद्यापति के पदों के इस व्यापक प्रचार का क्या कारण था? वैष्णव धर्म ने इसमें
1. डॉ. जयकान्त मिश्र के इतिहास में उल्लेख।
2. History of Maithili Literature
लेखक
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह “दिनकर ”
क्रमश —-2