~~मैखाने का साथ ~~
रोजाना बैठता था मेरे साथ साथ
गुजर जाता था समा,
बस मिलकर मैखाने में
एक दिन गुजर गया
और छूट गया साथ अपना
और मैं चल दिया
छोड़ कर सारा जमाना
जब कन्धा देने की आई बारी
तो खुद से किया सवाल
देख जिन के साथ गुजार
रहा था, तू जिन्दगी
मैखाने में बैठ कर
आज तुझ को जाना पड रहा
छोड़ के अकेले यह जहान
मैखाना और शमशान
दोनों का मिलन आज खत्म हो रहा
दोस्त दोस्त न रहा,
बस परवान चढ़ गया
अकेला रह गया , किसी सोच के साथ
कैसे वक्त बीत गया और
वो चल दिया किस ओर
एक शून्य सी में डूब गयी
नाम वो आँखें , याद कर कर
के कि, कैसे छलक जाते थे
कभी मैखाने में यह जाम
रोक नहीं सकता , कोई
टूटते हुए साँसों की डोर को
लाख कोशिश करे चाहे
यह पैमाने के जाम
अजीत तलवार